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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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एक बेहतरीन संपादक भी थे ऋतुपर्णो

पलाश विश्वास / महज 49 साल की आयु में हाल के वर्षों में बंगाल के सबसे सक्रिय और सबसे चर्चित फिल्मकार ऋतुपर्णों  घोष नींद में चले गये।

यह बंगाल से बाहर बाकी भारत में बहुत कम लोगों को मालूम है कि ऋतुपर्णो एक बेहतरीन सफल फिल्मकार के साथ ही एक बेहतरीन संपादक भी थे। आनंदबाजार पत्रिका समूह के `आनंदलोक' से लंबे समय तक जुड़े रहने के बाद वे प्रतिदिन जैसे सामान्य अखबार की रविवारी पत्रिका `रोबबार' का जिस कुशलता से संपादन करे रहे थे, अपनी तमाम व्यस्तताओं के मध्य, उसकी तुलना भारतीय फिल्मों में अपर्णा सेन से ही की जा सकती है। गिरीश कर्नाड भी बेहतरीन लेखक हैं, लेकिन वे लगातार किसी व्यवसायिक पत्रिका का संपादन करते रहे हैं, ऐसा हमें नहीं मालूम। हम `प्रतिदिन' के पाठक नहीं रहे, लेकिन वर्षों से रविवार के दिन प्रतिदिन लेते रहे सिर्फ `रोबबार' पढ़ने के लिए और वह भी `देश' बंद करके, क्योंकि सागरमय घोष के बाद देश का स्तर ही नहीं रहा कोई। रविवारी में ऋतुपर्णों का संपादकीय स्तंभ `फर्स्ट पर्सन' बेहद पठनीय रहा है।दरअसल, उनकी लेखकीय क्षमता ही उन्हें  एक बाहतरीन फिल्मकार बनाती रही। ऋत्विक घटक और  सत्यजीत रे भी अपनी लेखकीय प्रतिभा के बल पर अलग से पहचाने जाते हैं।

अभी बंगाल या भारत के दिग्गज फिल्मकारों से ऋतुपर्णों की तुलना करने का शायद वक्त नहीं है, लेकिन कुछ लोग उन्हें ऋत्विक घटक के उत्तराधिकारी भी बताने लगे हैं। ऐसा करके वे ऋतुपर्णो के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं।12 राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले ऋतु दा कोलकाता में जन्मे थे और कोलकाता में ही उन्होंने आखिरी सांस ली! वह कोलकाता में ही पले-बढ़े और उन्होंने साउथ प्वाइंट हाई स्कूल से पढ़ाई की। उनका कल सुबह 7.30 बजे निधन हुआ। जानकारी मिली है कि सेक्स चेंज ऑपरेशन के बाद उनकी तबीयत खराब रहने लगी थी। परिजनों के अनुसार नींद में ही उनकी मौत हो गई थी। कहा जा रहा है कि अग्नाशय की बीमारी की वजह से नींद में ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे बचने के लिए कुछ भी नहीं कर सके।

वो इस समय सत्यनेशी व्योमकेश बख्शी नाम की फ़िल्म बना रहे थे। व्योमकेश एक जासूसी चरित्र हैं जिस पर पूर्व में धारावाहिक बन चुका है लेकिन इस विषय पर ऋतुपर्णो से एक अलग फिल्म की उम्मीद की जा रही थी। अभी उन्होंने परसो ही अपनी ताजा फिल्म `चित्रांगदा' की शूटिंग पूरी की।

यही ऋतुपर्णो की खासियत है। हम ही क्या, बंगाल में विरले लोग ही होंगे जो ऋतुपर्णो की फिल्में देखते न हों! उनकी फिल्में व्यवसायिक रुप से सफल हैं लेकिन आप उन्हें विशुद्ध व्यवसायिक या कला फिल्म भी कह नहीं  सकते। वे कोई ऋषिकेश मुखर्जी भी नहीं हैं।

उनकी फिल्मों जैसे `चोखेर बालि' के फिल्मांकन को लेकर तमाम बहस की गुंजाइश है, `अंतर्महल' को लेकर भी और हालिया `नौकाडूबी' के निष्पादन को लेकर भी। पर इन फिल्मों की आप उपेक्षा कर ही नहीं सकते।

ऋतुपर्णों घोष को उनका प्रोफैशन विरासत में मिला क्योंकि उनके पिता खुद भी डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर थे। उनकी मां भी फिल्मों से जुड़ी हुई थीं। घोष ने अपने करियर की शुरुआत विज्ञापन फिल्मों से की थी। अपने 19 साल के फिल्मी करियर में उन्होंने 19 फिल्मों का निर्देशन, 3 फिल्मों में अभिनय किया। उन्हें 12 राष्ट्रीय पुरस्कारों सहित कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया।

घोष की पहली फिल्म 'हिरेर आंग्टी' थी, जो उन्होंने बच्चों के लिए बनाई थी। उनकी 'दाहन उस्ताब', 'चोखेर बाली', 'दोसर', 'रेनकोट', 'द लास्ट लीयर', 'सब चरित्रो काल्पोनिक' और 'अबोहोमन' को राष्ट्रीय पुरस्कार और आलोचकों की सराहना मिली।

`दहन' हो या `किंग लियर', `रेनकोट' हो या `सनग्लास' या फिर `आवहमान' या `चित्रांगदा' या `उनीशे अप्रैल', उनकी फिल्में मुकम्मल बयान हुआ करती हैं, जिनसे आप सहमत हो सकते हैं और असहमत भी।

वे बांग्ला शाकाहारी फिल्मों को बालिग बनाने में क्लासिक साहित्य का इस्तेमाल करने से भी नहीं चुके। रवींद्र साहित्य की उन्होंने सेल्युलाइड में उत्तरआधुनिक व्याख्या की, जिसकी आजतक किसी ने हिम्मत तक नहीं की।

रवींद्र साहित्य और रवींद्र संगीत भारतीय फिल्मों में बहुत लंबे अरसे से हैं, लेकिन रवींद्र की छाया से निकालकर रवींद्र को सिनेमा की भाषा में अभिव्यक्त करने का दुस्साहस सिर्फ ऋतुपर्णो ने ही किया। इस लिहाज से `चोखेर बालि' , `नौकाडूबी' और `चित्रांगदा' जैसी फिल्मों का महत्व कुछ अलग ही है।

ब्रांडेड चेहरों को किरदार में बदलने का दुस्साहस भी ऋतुपर्णों की निर्देशकीय दक्षता को रेखांकित करती है। ऐश्वर्य हो या ऋतुपर्णा या फिर अमिताभ बच्चन या अपने अजय देवगण , सबकी शारीरिक भाषा ऋतुपर्णो की फिल्मों में बदली बदली सी नजर आती है।

`बाड़ीवाली' की किरण खेर अभूतपूर्व है तो `नौकाडूबी' की रिया सेन ने सबको हैरत में डाल दिया। `दोसर' में कोंकणा का तेवर कभी भुलाया ही नहीं जा सकता।  `दहन' में इंद्राणी हाल्दार और ऋतुपर्णा के ट्रीटमंट एक अद्भुत किस्म की निरपेक्षता है।

ऋतुपर्णों घोष के साथ 'मेमरीज़ इन मार्च' में काम कर चुकी अभिनेत्री दीप्ति नवल ने बीबीसी से बात करते हुए कहा "अपनी सेक्शुएलिटी को लेकर इतना सहज मैंने किसी को नहीं देखा। उसने मुझे बताया था कि एक बार अभिषेक बच्चन ने उसे ऋतु दा नहीं ऋतु दी कहा और ये बताते हुए उसकी आंखों में चमक थी।"

दीप्ति कहती हैं कि ऋतुपर्णो की मृत्यु सिर्फ बंगाली सिनेमा नहीं राष्ट्रीय सिनेमा के लिए बहुत बड़ी सदमा है क्योंकि वो एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फिल्मकार थे।

अपनी बात पूरी करते हुए दीप्ति ने कहा "ऋतु अपनी समलैंगिकता को लेकर कतई शर्मिंदा नहीं थे. वो एक पुरुष के शरीर में महिला थे और उन्होंने तय किया था कि वो समलैंगिक विषयों को अपनी फिल्मों में उठाते रहेंगे।"

बीबीसी के मुताबिक चाहे हिंदी फ़िल्म रेनकोट में ऐश्वर्या राय और अजय देवगन से संवेदनशील अभिनय करवाना हो या फिर बांग्ला और हिंदी में चोखेर बाली हो। ऋतुपर्णो ने न केवल महिलाओं से जुड़े मुद्दों को उठाया बल्कि समलैंगिक मुद्दों को भी वो उठाते रहे।

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सम्पादक

डॉ. लीना