नवीन पटनायक सरकार का ओ टीवी चैनल का बहिष्कार…ग़लत या सही..
रवीश कुमार/ ओ टी वी ओडिशा का पहला प्राइवेट टीवी चैनल है। इसकी किसी स्टोरी से नाराज़ बीजेडी सरकार ने सार्वजनिक रूप से कहा कि इस टीवी के बहस वाले कार्यक्रम में नहीं जाएंगे। मुझसे प्रतिक्रिया मांगी गई। देर लगाई क्योंकि स्टोरी की जानकारी नहीं थी। अभी भी नहीं है कि किस स्टोरी को लेकर क्या लड़ाई हो रही है। फिर भी ये बहिष्कार नहीं करना चाहिए, अगर आप पहले से जाते हैं तो बाद तक जाते रहिए। हर चैनल किसी न किसी रूप में किसी न किसी के बहिष्कार का शिकार है। मेरे शो में भी बीजेपी के प्रवक्ता दो साल से नहीं आते हैं। न मैं उन्हें बुलाने गया क्योंकि उन्होंने बिना कारण बताए आने से बंद कर दिया। इसी तरह कभी कांग्रेस किसी चैनल का बहिष्कार करती है तो कभी कोई चैनल आप का करता है।
अब यह बात इसलिए कहता हूं कि मुझे लगता है कि इससे बीजेपी का कार्यकर्ता शर्मिंदा होता होगा। उसे शर्म आती होगी कि जिस पार्टी के ज़रिए हम लोकतंत्र को संवारना चाहते हैं वो 21 राज्यों में सत्ता में आने के बाद एक पत्रकार का बहिष्कार करती है। उसके सवालों का सामना नहीं कर पाती है। और आप बैंक, स्कूल, कालेज और नौकरी के सवाल पर मेरा सामना कर भी नहीं पाएंगे। जब बीजेपी के अच्छे कार्यकर्ताओं का ख़्याल आया तब से बोलने लगा कि मेरा बहिष्कार हो रहा है। मुझे अच्छी तरह याद है कि किसी ज़माने में कार्यकर्ता ही सवाल देते थे कि हमारे नेता जी से ज़रा रगड़ कर पूछिए न। वो खुश होता था। अब भी ऐसे कार्यकर्ता होंगे मुझे उम्मीद है। पर अब मुझे किसी का इंतज़ार नहीं। इतिहास में दर्ज होने का इससे अच्छा मौका कहां मिलता। सो कार्यकर्ताओं को अफसोस नहीं करना चाहिए। कई बार पार्टी के बडे नेता छोटे दिल के होते हैं।
ओ टी वी के बहिष्कार का यह कदम ऊपर से प्रेस की अभिव्यक्ति का मामला लगता है। पर क्या यह सिर्फ अभिव्यक्ति की आज़ादी का मामल है या पत्रकारिता की आड़ में राजनीति का भी है? वक्त आ गया है कि हम इन बातों को लेकर मानक राय बनाएं। उसमें सबका पक्ष हो। अब चैनलों के सवाल सरकार के प्रोपेगैंडा से मैच करने वाले सवाल हो गए हैं। सरकार का मतलब बीजेपी। दूसरे राज्यों में जहां बीजेपी नहीं है, वहां भी यह प्रवृत्ति देखी जाती है। लेकिन चुनाव होते ही सरकार का प्रभाव समाप्त हो जाता है। विपक्ष हीरो हो जाता है और सरकार खलनायक हो जाती है। जहां बीजेपी की सरकार है वहां विपक्ष खलनायक हो जाता है। मीडिया और राजनेता दोनों ही तरफ से इस संतुलन को तोड़ा गया है।
इस सवाल का जवाब कई सवालों से गुज़रता है। कहां जाता है कि ओ टीवी में उस सांसद की पत्नी की हिस्सेदारी है जो कभी नविन पटनायक के साथी और सांसद रहे हैं। व्यक्तिगत रूप से पांडा साहब अच्छे सांसद हैं और इनका लिखा अच्छा लगता है। लेकिन हमें नहीं मालूम कि नवीन पटनायक से संबंध खराब होने से पहले ओ टी वी के तेवर क्या होते थे। इस पर मेरी कोई राय नहीं क्योंकि मुझे कोई जानकारी नहीं है।
क्या अब मालिकाना हक के सवाल को आगे रखना चाहिए? अगर मालिक बीजेपी का सांसद ही हो तो उसके चैनल के अभियान को विपक्ष विरोधी देखे जाने का ख़तरा हो सकता है और साफ साफ होता भी है। रिपब्लिक टीवी में निवेश करने वाले राजीव चंद्रशेखर बीजेपी के टिकट से राज्यसभा में पहुंच गए हैं। पहले निर्दलीय थे। ज़ी न्यूज़ के सुभाष चंद्रा भी राज्यसभा सदस्य के निर्दलीय सदस्य हैं। राजीव शुक्ला भी राज्य सभा के सदस्य हैं उनका भी चैनल है। कई कारपोरेट ऐसे हैं जिनका कई चैनलों में निवेश है और वे ज़्यादातर सरकार का साथ लेते हैं। तो क्या सारा मामला अभिव्यक्ति की आज़ादी का ही होता है या अपने विरोधी को दबाने का होता है। जब सरकार दूसरे चैनलों की आवाज़ दबाती है तब रिपब्लिक टीवी का क्या स्टैंड होता है, मुझे पता नहीं। जब रिपल्बिक टीवी का विपक्ष विरोध करता है तब बाकियों का स्टैंड क्या होता है, इस पर ज़रूर लिखा ही गया होगा। इतना सब याद नहीं रहता फिर भी इन सब सवालों को सामने रखकर इस पर मानक बनाना चाहिए क्योंकि कई सांसदों के चैनल हैं, कई सांसदों के केबल नेटवर्क हैं।
क्या होगा जब बीजेपी के नेता या मित्र का चैनल हो और वो कांग्रेस या विरोधी दल के खिलाफ अनाप शनाप तरीके से अभियान चला रहो, क्या होगा जब कांग्रेस का कोई नेता हो और उसका चैनल बीजेपी के खिलाफ अनाप शनाप तरीके से अभियान चलाता हो? इसका जवाब सांसद मालिक क्यों नहीं दे रहे हैं, बार बार पत्रकारों के पास क्यों आता है, जिन्हें सवाल पूछने पर सेकेंड भर में चलता कर दिया जाता है।
पत्रकारिता में नैतिकता के पैमाने ध्वस्त हो गए हैं। अब कोई नियम बचा नहीं है। सड़क से ट्रैफिक लाइट हटा दी गई है, आप अपने लेन में चलते रहेंगे आपके ही मारे जाने की संभावना है। कोई पीछे से टक्कर मार देगा या फिर आप पीछे रह जाएंगे। ऐसे में लगेगा कि आपको कार ही चलानी नहीं आती है। अपनी लेन में दुबके हुए हैं या सबने मिलकर आपको हाशिये पर धकेल दिया है। प्रेस की आज़ादी समाप्त हो रही है, प्रेस भी समाप्त हो रहा है। यह चिन्ता का विषय है। इस खेल में जनता हार रही है क्योंकि उसकी आवाज़ का गला घोटा जा रहा है। अगर सत्ता के साथ बैठकर कोई चैनल विपक्ष को कुचलता है तो इसका सीधा मतलब होता है कि वह जनता की आवाज़ को कुचल रहा है।
जब शशि थरूर को एक ही चैनल के चार रिपोर्टर कैमरा लेकर दौड़ा दें तो क्या यह पत्रकारिता है, घेर कर तमाशा बना देने का यह खेल ख़तरनाक है। अंत में थरूर को अदालत से राहत मिली। यह दृश्य बड़ा डरावना था। मैं भी इसी तरह के लिंच मॉब का शिकार होते होते बचा हूं। कभी ये कहानी विस्तार से बताऊंगा। वक्त लेता हूं मगर बता देता हूं। वो वक्त मेरा होगा। जिस तरह से मीडिया ने भीड़ बनकर हमला किया , वो भयावह था। मीडिया सिर्फ दिल्ली में ही तो नहीं होता है न। मैं देखता ही रह गया। शुक्र है उन दोस्तों का जिनके मनोवैज्ञानिक सहयोह से इस चुनौती को पार कर गया। मगर ठीक ठीक जानता हूं कि यह खेल कितना ख़तरनाक हो सकता है। फिर भी इस पर ठोस राय होनी चाहिए।
तब तक बीजेडी सरकार का ओ टीवी का बहिष्कार ग़लत है और वो भी प्रेस कांफ्रेंस कर चुनौती देना तो और भी ग़लत है। सरकार में होकर आपको डराने का कोई हक नहीं क्योंकि विपक्ष का सामना तो आप विधान सभा में भी करते हैं। चुनाव में भी करते हैं। आप सत्ता पक्ष होते हुए भी खुद में भी विपक्ष के लिए विपक्ष होते हैं।
नोट- मुझे पता है ओ टी वी के लोग आखिरी पैरा को ही उठाकर कोट करेंगे बाकी बातें गुम हो जाएंगी। पर क्या किया जा सकता है।
(रवीश कुमार के ब्लॉग क़स्बा से साभार)