कमोबेश सभी मीडिया हाउस की हालत ख़राब है..... नियुक्ति की प्रक्रिया बहुत अलोकतांत्रिक है.....
स्वतंत्र मिश्रा/मैं शुक्रवार का कर्मचारी हूँ इसलिए मुझसे दर्जनों लोग फेसबुक के इनबॉक्स में, ईमेल के चैटबॉक्स में, मोबाइल इनबॉक्स और कॉल करके लोग पूछ रहे हैं क्या शुक्रवार, बिंदिया और मनी मंत्र बंद हो गई? मैं उन्हें जवाब दे रहा हूँ - हाँ, बंद हो गई? मनी मंत्र को तो लगभग दो महीना पहले बंद किया गया, शुक्रवार का आखिरी इशू 1-15 सितम्बर का है. और साथ ही मैं लोगों से यह भी कह रहा हूँ कि इसमें नया कुछ भी नहीं है. ऐसा पहले भी होता रहा है. दिनमान, रविवार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग और ना जाने कितनी पत्रिकाएं बंद हुई हैं और होती रहेंगी। पूंजीपतियों या उद्योगपतियों के लिए चप्पल, जूता, अगरबत्ती, साबुन और पंखे बेचने की तरह ही यह भी एक धंधा है. मेरी चिंता फ्रीलांसरों, स्टिंगर और इससे जुड़े हुए नियमित और अनुबंध वाले कर्मचारियों के लम्बे-चौड़े बकाया धनराशि को लेकर है. हमलोग 3 सितम्बर को मालिक से मिलने गए थे, क्योंकि नॉएडा 57 सेक्टर में बैठने वाले प्रबंधन और डायरेक्टर हमें गोलियां देने में लगे हुए थे. हमसे मिलने तक का कोई वक़्त वे नहीं निकाल पाये। इस प्रबंधन की दलाली में शुक्रवार का मुखिया भी लगा रहा. मालिक ने हमें आश्वस्त किया है कि वे सभी का एक-एक पैसा 15 सितम्बर से पहले देंगे। उन्होंने हमारे बकाये और तीन महीने की एडवांस सैलरी देने की भी बात की है. हम उम्मीद कर रहे हैं कि हमें हमारा पैसा एक-आध सप्ताह के अंदर सम्मानजनक तरीके से मिल जायेगा।
कंपनी ने यहाँ काम कर रहे कर्मचारियों को पिछले 6 साल में खूब इज्जत नवाजा है. उन्हें 20-25 फीसदी इन्क्रीमेंट सहित तमाम सुविधाएँ दी हैं. पिछले साल भी सभी को 14-18 फीसदी इन्क्रीमेंट मिला लेकिन अब मैनेजमेंट का एक हिस्सा पिछले कई महीने से इस खुरपेंच में लगा है कि हम टूट जाएं। कुछ लोगों को नौकरी से बेदखल किया गया, कुछ लोगों की पगार कम की गयी. हमें जून से तनख्वाह नहीं मिली है लेकिन हम एकजुट हैं. हम इनसे पैसे हर हाल में वसूलेंगे। जाहिर सी बात है कि इन तीनो ही पत्रिका के सभी कर्मचारियों ने बाजार और पाठकों के बीच इसकी साख बनाने के लिए जीतोड़ मेहनत की है.
पर्ल न्यूज़ नेटवर्क की नहीं, कुछ को छोड़ दें तो कमोबेश सभी मीडिया हाउस की हालत ख़राब है. कहीं तनख्वाह देरी से आ रही है तो कहीं कम से कम स्टाफ से ज्यादा से ज्यादा काम लिया जा रहा है. काम के घंटे तय नहीं हैं. और आजकल तो नौकरी में उम्र भी पुछा जाने लगा है. एक बड़े अखबार ने तो नियुक्ति के लिए उम्र सीमा 38 निर्धारित कर दी है. रूप, रंग, जाति, पहनावे के आधार पर नियुक्ति के दरवाजे खोलने और बंद करने का रिवाज तो पुराना है. मीडिया के बॉस कहते हैं दफ्तर आने का समय होता है, लौटने का कोई समय नहीं होता है. नियुक्ति की प्रक्रिया बहुत अलोकतांत्रिक है या यूँ कहें की बहुत ही अपमानजनक। इन सबके बावजूद बहुत सारे अच्छे लोग मीडिया में हैं जो संवेदनशील है और उनसे ही इस चरित्र को बदलने की उम्मीद है. आपको मुखर होना होगा, अन्यथा आज हमारी तो कल आपकी बारी आएगी।
(स्वतंत्र मिश्रा के फेसबुक वाल से साभार - https://www.facebook.com/mishra.swatantra)