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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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पत्रकारिता को कलंकित करते ये आधुनिक टी वी एंकर्स

अतिथियों के साथ भी इस लहजे से बात करते हैं, गोया उसे बुलाया ही अपमानित करने के लिए है

तनवीर जाफ़री/ प्रतिष्ठित रेमन मैगसेसे सम्मान विजेता तथा देश के जाने माने पत्रकार व टी वी एंकर रवीश कुमार विभिन्न स्थानों पर अपने संबोधनों में कई बार यह कह चुके हैं कि जनता को टी वी देखना बंद कर देना चाहिए। रवीश कुमार स्वयं एन डी टी वी इंडिया जैसे देश के प्रमुख समाचार नेटवर्क में संपादक हैं तथा पत्रकारिता में उत्कृष्टता के लिए प्रसिद्ध रामनाथ गोयनका पुरस्कार, प्रतिष्ठित गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार, छत्तीसगढ़ सरकार के माधव राव जैसे सम्मानों से नवाज़े जा चुके हैं। आज भी वे एनडी टीवी इंडिया के प्रमुख कार्यक्रमों 'प्राइम टाइम शो' व 'देस की बात' जैसे लोकप्रिय कार्यक्रमों को एक एंकर के रूप में प्रस्तुत करते हैं। "द इंडियन एक्सप्रेस" ने 2016 में  '100 सबसे प्रभावशाली भारतीयों' की सूची में भी उनका नाम शामिल किया था।  सवाल यह है कि टेलीवीज़न जगत का इतना बड़ा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सितारा ही स्वयं क्यों कह रहा है कि लोगों को टी वी देखना बंद कर देना चाहिए? यहाँ तक कि वे अपने टी वी चैनल को भी न देखने की सलाह देते हैं ? आख़िर इसका क्या कारण है ?

इस सवाल का जवाब आज के मुख्य धारा के टी वी चैनल्स को देखकर स्वयं हासिल किया जा सकता है। यहां इस बात को अभी छोड़ देते हैं कि अधिकांश टी वी चैनल्स गोदी मीडिया की भूमिका अदा करते हुए सत्ता की चाटुकारिता करने व सत्ता के एजेंडे को परोसने के साथ साथ सत्ता से सवाल करने के  बजाए विपक्ष से ही सवाल करने व विपक्ष को कटघरे में खड़ा करने में अपनी पूरी ताक़त झोंके हुए हैं। इसके अलावा सत्ता के भोंपू बने इन्हीं चैनल्स के अनेक युवा पत्रकारों के किसी भी कार्यक्रम को प्रस्तुत करने, किसी विषय पर बहस करने -कराने या अपने आमंत्रित अतिथि से सवाल जवाब करने के तौर तरीक़े उनके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली उनके तेवर ,उनके शारीरिक हाव् भाव, उनका गला फाड़ अंदाज़-ए-बयां आदि को यदि ग़ौर से देखा जाए तो यह तो पता ही नहीं लगता की स्वयं को पत्रकार समझने की ग़लतफ़हमियाँ पालने वाले ये ये 'तत्व' गणेश शंकर विद्यार्थी, माखन लाल चतुर्वेदी, कमलेश्वर व धर्मवीर भारतीय जैसे अनेक गंभीर पत्रकारों की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।

ठीक इसके विपरीत किसी भी कार्यक्रम के इनके प्रस्तुतीकरण के अंदाज़ से साफ़ झलकता है कि इनका एजेंडा किसी विषय पर गंभीर चिंतन करना या उसे तथ्यपूर्ण तरीक़े से गंभीरता के साथ जनता के सामने पेश करना नहीं बल्कि विषय विशेष का पूर्णतयः व्यावसायिक उपयोग करते हुए उसे और अधिक उलझाना, मुद्दे में विवादित पहलू तलाश कर उसे शीर्षक या ब्रेकिंग न्यूज़ बनाना, अपने अतिथियों के साथ बदतमीज़ी से पेश आते हुए उन्हें भड़काना व उन्हें ग़ुस्से में लाकर उनके मुंह से कुछ ऐसे वाक्य निकलवाना होता है जिससे कोई विवाद खड़ा हो सके। आजकल एंकर की भूमिका निभाने वाले युवक व युवतियां यह भी नहीं देखते कि जिस अतिथि को उन्होंने आमंत्रित किया है वे उन ऐंकर्स से उम्र व अनुभव में कितने बड़े हैं। ये सभी के साथ इस लहजे से बात करते हैं गोया इन्होंने उसे बुलाया ही अपमानित करने के लिए है। जब चाहें ये पूर्वाग्रही एंकर जोकि अपना एजेंडा निर्धारित कर कार्यक्रम संचालित व प्रसारित करते हैं, किसी भी बहस को कभी सांप्रदायिकता की तरफ़ मोड़ने का पूरा हुनर रखते हैं तो कभी राष्ट्रवाद के स्वयंभू रखवाले बनकर किसी भी भारतीय व्यक्ति या पूरे संगठन अथवा दल को राष्ट्र विरोधी या राष्ट्रद्रोही साबित करने का भी ज़िम्मा उठा लेते हैं।  

कार्यक्रमों के इसी तरह के घटिया व निम्न स्तरीय प्रस्तुतीकरण का ही नतीजा है कि कई बार ऐसे टी वी स्टूडियो में बहस के दौरान गाली-गलौच, धक्का -मुक्की व एक दूसरे को देख लेने की धमकी देने जैसी घटनाएँ घट चुकी हैं। यहाँ तक कि चप्पल जूते फेंकने, तानने व दिखाने की घटनाएँ भी कई बार हो चुकी हैं। कई टी वी एंकर भी अपने ही अतिथियों से भी गालियां खा चुके हैं। पिछले दिनों तो एक 'नव अवतरित' टी वी चैनल के एक अत्यंत विवादित संपादक ने महज़ टी आर पी के लिए ऐसा तमाशा कर दिखाया जो पत्रकारिता के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा तमाशा कहा जा सकता है। भारत व पाकिस्तान के दो अतिथि जो अपने अपने ड्राइंग रूम से स्टूडियो से जुड़े हुए थे, तनाव में आकर एक दूसरे को काग़ज़ी राकेट व मिसाइल दिखा कर ऐसे बरस रहे थे गोया अभी एक दूसरे पर इन्हीं काग़ज़ी हथियारों से हमला कर देंगे। यह इत्तेफ़ाक़ हरगिज़ नहीं हो सकता कि दोनों ही देशों के दोनों ही अतिथि मानसिक रूप से एक साथ एक जैसी तैयारी कर हाथों में मिसाइल व राकेट के खिलोने लेकर एक दूसरे को धमकाने आए हों।  शत प्रतिशत यह पूर्व नियोजित व तय शुदा था तथा उन्हें उकसाने के लिए जान बूझकर एंकर द्वारा ऐसे शब्दों व वाक्यों का इस्तेमाल किया जा रहा था की एक दूसरे पर वे काग़ज़ी शस्त्र उछाल कर उन्हें डराएं धमकाएं।

वैसे भी आजकल इन चैनल्स में कार्यक्रमों के जिस तरह के नाम रखे जा रहे हैं और कार्यक्रम के दौरान जिस तरह की लाईट-साउंड-म्यूज़िक का इस्तेमाल किया जाता है उसे पत्रकारिता के लक्षण नहीं बल्कि नाटक, फ़िल्म व मनोरंजन का गुण ज़रूर कहा जा सकता है। राजनैतिक दलों के कुछ प्रवक्ता भी ऐसे हैं जो ऐसे टी वी एंकर्स से वैचारिक समानता रखते हैं उन्हें भी ये एंकर ज़रूर आमंत्रित करते हैं ताकि इनके 'तमाशे' में कोई कमी या कसर न रह जाए। ज़ाहिर है यह बातें वास्तविक व नैतिकता की पत्रकारिता के रसातल में जाने के लक्षण हैं जिसे कोई भी गंभीर व पत्रकारिता के मूल्यों व दायित्वों की क़द्र करने वाला व्यक्ति न तो सहन कर सकता है न ही इस वातावरण में स्वयं को इसमें समायोजित कर सकता है। निश्चित रूप से 'एजेंडा पत्रकारिता' की ही वजह से आज देश बेहद चिंतनीय दौर से गुज़र रहा है। जनता को ग़लत सूचनाएं परोसी जा रही हैं,सही ख़बरों को छुपाया जा रहा है, किसानों, मज़दूरों, छात्रों, गरीबों के हक़ व अधिकार की बात करने के बजाए सत्ताधीशों की भाषा बोली जा रही है। मंहगाई, बेरोज़गारी पर चर्चा नहीं होती बल्कि चीन पाकिस्तान मंदिर मस्जिद जैसे विषयों पर बहस कराई जाती है। और आपके ड्राइंग रूम में ही बैठे बैठे आपको वैचारिक रूप से गुमराह कर दिया जाता है। तभी रवीश कुमार जैसे वरिष्ठ पत्रकार को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि टी वी देखना बंद करने में ही आपकी भलाई है। कहना ग़लत नहीं होगा कि ऐसे ही 'आधुनिक टी वी एंकर्स ' पत्रकारिता को कलंकित कर रहे हैं।

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना