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दलित साहित्य आंदोलन का दस्तावेज

कैलाश दहिया / पुस्तक समीक्षा /  'समकालीन हिंदी दलित साहित्य : एक विचार-विमर्श' नाम से वरिष्ठ लेखक सूरजपाल चौहान के समय- समय पर पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों- आलेखों का संग्रह है। किताब की भूमिका में लेखक ने लिखा है, 'इनका महत्त्व मुझे तब ज्ञात हुआ जब देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों से दलित लेखन पर शोध कर रहे छात्र-छात्राओं से समय-समय पर इन विषयों पर जानकारी प्राप्त करने की बात कही गयी। मैं आखिर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से खोज - खोज कर कब तक फोटो प्रतियां उन्हें उपलब्ध करवाता रहता।' (भूमिका से,पृष्ठ-7) इस के बाद यह संग्रह पुस्तकाकार रूप में आया है। यह ऐतिहासिक  और प्रशंसनीय कार्य है।

बताया जाए, दलित लेखन कोई पुराण पाथना तो है नहीं कि जो मन में आया लिख दिया। कोई भी दलित साहित्यकार यहां तक कि अपने लेखन की शुरुआत तक करने वाला हमारा नए से नया लेखक भी जब लिखना शुरू करता है तो द्विज व्यवस्था की अमानवीयता की पोल खोल कर रख देता है। दलित लेखन को लेकर यही ब्राह्मण का भय है। इसी लिए वह भी दलित लेखन के नाम खुद लिखने की बात कहता पाया जाता है। जिसे महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर सिरे से नकार चुके हैं। चौहान जी के कथन के माध्यम से बताना यह है कि दलित लेखक अपनी लेखनी को सुरक्षित रखें। ताकि आगे आने वाली पीढ़ियां जान सकें कि दलित साहित्य आंदोलन कैसे चला है। यहां प्रसंगवश बताया जा सकता है कि भारत का स्वतंत्रता आंदोलन भी ऐसे ही आगे बढ़ा है। लेखन का दस्तावेजीकरण जरूरी है, अन्यथा ब्राह्मण प्रक्षिप्त लिखने में माहिर है ही। लेखक ने भी लिखा ही है, 'देश आज किस चौराहे पर खड़ा है? अंधकार के चौराहे पर। इसका मुख्य कारण है हमारे देश के साहित्य (द्विज साहित्य) का जरूरत से ज्यादा गप्पी होना। सारे के सारे धर्म- ग्रंथ तक गप्पों से भरे पड़े हैं।(पृष्ठ-13)

 इस पुस्तक में सूरजपाल चौहान जी के साल 1993 से 2015 तक के आलेख सम्मिलित हैं। जिन्हें पढ़ने से पता चलता है कि इन 22 वर्षों में दलित साहित्य में क्या- क्या घटित हुआ। दूसरे, खुद लेखक की चिंतन यात्रा किस प्रकार विकसित हुई है। इसे इन की लिखत से ही बताया जा सकता है। लेखक ने ओम प्रकाश वाल्मीकि जी की कहानी 'शवयात्रा' पर वर्ष 2001 में लिखा, 'ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी शवयात्रा को चमार विरोधी कहानी करार देने के पीछे यही जात - पात और श्रेष्ठताभाव का अहम  है, जिससे दलित भी अछूते नहीं हैं और दलित चेतना सिर्फ एक नारा बनकर रह जाती है।'(पृष्ठ-20) चिंतन की विकास प्रक्रिया में लगभग डेढ़ दशक बाद साल 2014 में लेखक  लिखते हैं - "ओमप्रकाश वाल्मीकि हिंदी दलित साहित्य के आधार स्तंभ रहे हैं। वाकई इसमें दो राय नहीं है। उन्होंने कविता, कहानी, आत्मकथा, लेखन आदि में दलित साहित्य को बहुत कुछ दिया है। बैल की खाल, सलाम, पच्चीस चौका डेढ़ सौ, घुसपैठिए आदि कहानियां साहित्य जगत में खूब चर्चा में रही हैं। वहीं दूसरी ओर दलितों में फूट डालने और गैर दलितों को खुश करने के लिए या कहें अपने आप को चर्चा में बनाए रखने के लिए उनकी ओर से जान-बूझकर शवयात्रा कहानी भी लिखी गई है। इस कहानी के सन् 1998 के इंडिया टुडे के एक अंक में प्रकाशित होते ही गैर - दलित लेखकों को यह कहने का पूरा अवसर हाथ लग गया था कि देखो दलितों में भी ऊंच-नीच और छुआछूत की भावना है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने एक बार नहीं कई बार गैर - दलित लेखकों के सुर में सुर मिला कर गैर- जिम्मेदाराना बातें कही हैं। ( पृष्ठ-76) चिंतन की अपनी विकास प्रक्रिया में लेखक ने लिखा है, 'यह बात सोलह आने सच है कि नवबौद्ध आपस में आज भी चमार, जाटव या भंगी बनकर रह गये हैं।... जब बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर का पूरा परिवार कबीरपंथी था तो फिर वह कबीर का मार्ग छोड़ कर बुद्ध के रास्ते पर क्यों गये - क्यों उन्होंने एक गृह -त्यागी का मार्ग अपनाया जबकि देश के दलितों का मार्ग हमेशा से गृहस्थ जीवन में रह कर कर्मयोगी का रहा है। स्वयं कमा कर खाने का अर्थात् आजीवक का रहा है, परजीवी तो कतई नहीं।' पृष्ठ-56) सूरजपाल चौहान जी की यह सतत विकसित प्रक्रिया सुखद है। देर- सबेर इस प्रक्रिया को हर दलित को समझना होगा।

इस दस्तावेजीकरण का एक फायदा यह भी हुआ है कि इस में उन दलितों के चेहरों से भी पर्दा उठ गया है जो गैर दलितों की कठपुतली बने रहे हैं। दरअसल, ये कलम वीर दलित साहित्य आंदोलन की पीठ में छुरा घोंपने वाले लोग हैं।

दस्तावेजीकरण न करने का क्या नुकसान होता है, इसे आजादी के आंदोलन के समकक्ष चल रहे  दलितों के 'आदि हिंदू आंदोलन' और 'आदधर्मी' आंदोलन के माध्यम से जाना जा सकता है। बताया जाए, स्वामी अछूतानंद के आदि हिंदू आंदोलन और बाबा मंगूराम के आदधर्मी आंदोलन का दस्तावेजीकरण कर लिया होता, जिन के आंदोलन से तत्कालीन  कांग्रेस बुरी तरह से डरी हुई थी, तो दलितों की हालत नहीं होती। दलित आंदोलन को निरंतरता मिल गई होती। आज यह आंदोलन सौ बरस से ऊपर हो गया होता। इस में दुख की बात यह है कि बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर ने अपनी लेखनी में स्वामी अछूतानंद जी का जिक्र तक नहीं किया है। इस से खुद डॉ. अंबेडकर की लेखनी घेरे में आ जाती है। क्योंकि, स्वामी जी ने डॉ. अंबेडकर को उत्तर भारत के दलित आंदोलन से परिचित ही नहीं करवाया था बल्कि हज़ारों वर्षों से चली आ रही  अपनी मूल निवासी परंपरा से भी रू - बरू करवाया था। क्या कारण है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समानांतर पूरे देश में चले दलित स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास नहीं मिलता? इस की एकमात्र वजह दलितों द्वारा अपने आंदोलनों का दस्तावेजीकरण नहीं करना है। महान मक्खलि गोसाल का आजीवक धर्म आंदोलन ऐसे ही विलुप्त हुआ था। इस आलोक में सूरजपाल चौहान जी की यह किताब बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।

इधर, मैंने, पिछले साल 2 अप्रैल 2018 को दलितों के स्वत: स्फूर्त  भारत बंद आंदोलन और उसमें मारे गए हमारे दलित आंदोलनकारियों पर लिखने का आह्वान किया था। जिस पर एक दलित ने मुझे ही सलाह दे डाली कि मैं ही क्यों ना लिखूं। इस से आप दलितों की मानसिक स्थिति का भी अच्छे से अंदाजा लगा सकते हैं। ऐसा नहीं है कि सभी दलित ऐसे हैं, कवि - लेखक सतनाम सिंह ने एक मुलाकात में भरे स्वर में कहा,  'सर, यह काम होना ही चाहिए, उन्होंने यह भी कहा कि वे इस पर जरूर काम करेंगे।' असल में, दलितों के अधिकार और आत्म सम्मान की लड़ाई को हर दलित को कलमबद्ध करना चाहिए, तभी कोई आंदोलन आगे बढ़ता है। क्या हम कुछ समय बाद गुजरात के 'ऊना कांड',  हरियाणा के मिर्चपुर, गोहाना, झज्जर कांड' महाराष्ट्र के 'खैरलांजी कांड' को याद रख पाएंगे? ऐसे ही 'कलबुर्गी- पानसरे हत्याकांड' की किसे याद रहेगी? ब्राह्मण इन के नाम पर प्रक्षिप्त नहीं खड़े कर देगा? और, वही बाद में सिलेबस में पढ़ाया जाएगा। इसे चौहान जी के द्वारा दर्ज किए गए पंडित अमीचन्द  शर्मा के प्रक्षिप्त से समझा जा सकता है। इन्होंने दर्ज किया है - 'सन 1916 में लाहौर के पंडित अमीचन्द ने भंगी समाज को वाल्मीकि की पूंछ पकड़ा कर बलात हिंदू घोषित कर दिया। पूरा देश जानता है कि वाल्मीकि को अपनाकर भंगी समाज को भला क्या मिला।' (पृष्ठ- 56) 

ऐसे ही दलितों ने दस्तावेजीकरण किया होता तो पता लगता कि कैसे अपने शिष्यों के साथ मिल कर द्रोण ने एकलव्य का अंगूठा चीर डाला था। ऐसे ही शम्बूक की हत्या की सच्ची बात पता रहती। इसके बाद तो ब्राह्मण जैसे चाहे प्रक्षिप्त खड़े करने में माहिर है ही। एकलव्य प्रकरण में  ध्यान रहे कि किसी दलित ने ब्राह्मण को कभी अपना गुरु नहीं माना और ना ही ब्राह्मण इस क्षमता में है कि वह किसी दलित का गुरु बन सके। सदगुरु रैदास और कबीर साहेब के नाम पर फैलाया गया प्रक्षिप्त सबके सामने है ही।

इस पुस्तक में सूरजपाल चौहान जी ने एक अच्छा काम यह भी किया है कि इन्होंने मुद्दे से जुड़े पक्षकार और विरोधियों के आलेख भी पुस्तक में दे दिए हैं‌। इससे बात पूरी खुल कर आ गई है। ऐसे एक प्रसंग की चर्चा यहां की जा सकती है। साहित्य अकादमी ने अप्रैल 2011 के अंतिम सप्ताह में 'समकालीन भारतीय दलित साहित्य क्षितिजों के पार' विषय पर तीन दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन करवाया था। जिसके एक सत्र में जो कुछ हुआ उसे चौहान जी ने अपने आलेख 'आजादी बनाम अंकुश' में उघाड़ कर रख दिया। 'जनसत्ता' जैसे अखबार में चौहान जी का यह आलेख 1 मई, 2011 को प्रकाशित हुआ। इसके बाद इसी अखबार ने इस बहस को आगे बढ़ाते हुए बजरंग बिहारी तिवारी, राज वाल्मीकि, किशोर कुमार कौशल, डॉ. धर्मवीर और रामचंद्र के लेख छापे। इस बहस का अंत चौहान जी के 'बयान' पत्रिका में छपे लेख 'घुसपैठ की शक्ल' से हुआ।(पृष्ठ- 51)

साहित्य अकादमी के  उस कार्यक्रम में हुआ क्या था, जो जनसत्ता जैसे अखबार को अपने पन्नों पर जगह देनी पड़ी। अपने आलेख में चौहान जी ने लिखा है, 'लक्ष्मण गायकवाड़ ... बजरंग बिहारी के पर्चा पढ़ने के तुरंत बाद श्रोताओं की अग्रिम पंक्ति के बीच से उठे और एक लठैत की तरह बिना किसी की अनुमति के मंच पर चढ़ बैठे और माइक पर अधिकार जमा कर धर्मवीर को लेकर प्रलाप करने लगे। और तो और,  हिंदी दलित साहित्य के लेखक मोहनदास नैमिशराय को एक नर्सरी के बच्चे की तरह डपटते हुए उन्होंने 'बयान' पत्रिका से अपना नाम हटाने को कहा।' (पृष्ठ- 43) चौहान जी के लेख के बाद एक के बाद एक, इस घटना को लेकर लिखा गया। यह किताब इस पूरे प्रकरण को सूत्रबद्ध कर देती है। दरअसल यह घटना दलित साहित्य की एक बड़ी घटना है। इस में ब्राह्मण बजरंग बिहारी तिवारी समेत इन जैसों के गुलाम डा. रामचंद्र तक के चेहरे को सारी दुनिया ने देखा है। प्रसंगवश, यहां बताया जा सकता है कि डॉ. धर्मवीर के जिस साक्षात्कार पर  तिवारी ने साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में मराठी लेखक लक्ष्मण गायकवाड को उकसाया और जिस के बाद यह प्रकरण आगे बढ़ा, वह साक्षात्कार 'बयान' पत्रिका के लिए मैंने लिया था। जो पत्रिका के मार्च 2011 अंक में छपा था। अच्छा होता चौहान जी इस साक्षात्कार को भी अपनी इस किताब में ले लेते। अब पाठक को वह इंटरव्यू ढूंढना ही पड़ेगा। 

ऐसे ही दलित साहित्य में बड़े-बड़े अक्षरों में दर्ज हो चुकी उस घटना का विवरण इस किताब में मिलता है, जिस में तीन दलित स्त्रियों रजनी तिलक, विमल थोराट और अनिता भारती ने डॉ. धर्मवीर पर जूते चप्पल चलाए थे। यह बात 12 सितंबर, 2005 की है। चौहान जी लिखते हैं- 'राजेंद्र भवन के कॉन्फ्रेंस रूम में दलित चिंतक एवं लेखक डॉ. धर्मवीर की पुस्तकों के लोकार्पण का कार्यक्रम चल रहा था।... और आज इस कार्यक्रम में... डॉ. विमल थोराट हाथ में चप्पल उठाए पांच मिनट से भी अधिक देर तक उसे लहराती रहीं और एक साधारण कार्यकर्त्ता या नेता की तरह कैमरे के सामने फोटो खिंचवाती रहीं। (पृष्ठ- 40-2 )

इसी तरह की अनेकों ऐतिहासिक महत्त्व की घटनाएं इस  किताब के माध्यम से सामने आई हैं। जो अभी तक पत्रिकाओं-अखबारों के पन्नों में ही दबी थी। एक तरह से यह पुस्तक दलित साहित्य आंदोलन का दस्तावेज है। उम्मीद है ऐसी और किताबें भी सामने आएंगी।

आखिर में, बताना यह भी है कि 'दलित आत्मकथाएं' दलित साहित्य आंदोलन की सबसे बड़ी दस्तावेज हैं। जिन्हें नामवर सिंह जैसे उपन्यास कहते चले गए। इससे उन की तिकड़मी बुद्धि का अंदाजा लगाया जा सकता है।

 

* किताब का नाम- समकालीन हिंदी दलित साहित्य : एक विचार विमर्श

* लेखक- सूरजपाल चौहान

* प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली 110002

* संस्करण : 2017

* मूल्य : 350 रु.

#समीक्षक- कैलाश दहिया  वारिष्ठ आलोचक एवं  कवि हैं 

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डॉ. लीना