उर्मिलेश/ अपने यहाँ के मीडिया-समूहों(बड़े अख़बारों और टीवी चैनलों में) में जाति और जातिवाद की बात चलती है तो अमूमन लोग कहते हैं, छोड़िये न जातिवाद कहाँ नहीं है, अपने समाज के हर क्षेत्र में है! लेकिन तुलनात्मक स्तर पर देखें तो जातिवाद का बड़ा ही हैरतंगेज़ चेहरा दिखाई देता है. सबसे अधिक जातिवाद (कुछ ही जातियों का वर्चस्व) उन क्षेत्रों या सेक्टरों में सबसे ज़्यादा है, जहां सबसे अधिक पढ़े-लिखे लोग काम करते हैं!
भारत में जातिवाद (और कुछ ही जातियों का वर्चस्व) सबसे अधिक कहाँ है? हमारे आकलन के हिसाब से कुछ ही वर्णों/ जातियों का वर्चस्व सबसे अधिक बड़े मीडिया समूहों, शैक्षणिक जगत(विश्वविद्यालय, महाविद्यालय और साहित्य-संस्कृति आदि के संस्थान), एनजीओ, नौकरशाही, प्रकाशन जगत और यहाँ तक कि लेखकों की अपनी संस्थाओं में है. इन क्षेत्रों का जातिवाद आज भी अपनी पूरी उग्रता के साथ मौजूद है. हिंदी वालों में कुछ और ज़्यादा है. ‘सकारात्मक कार्रवाई’ के विभिन्न शासकीय कदमों को निष्प्रभावी करने में नौकरशाही, शैक्षणिक संस्थान और अन्य क्षेत्र की वर्चस्ववादी शक्तियाँ एकजुट हो जाती हैं. आज़ादी के 75 साल बाद भी ‘सकारात्मक कार्रवाई’ के सामाजिक पहलुओं और परिप्रेक्ष्य को लेकर भारत की न्यायिक व्यवस्था अपेक्षा के अनुरूप उदार और सकारात्मक नहीं हो सकी है.
इस टिप्पणी में यह जोड़ना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने देश की राजनीति, ख़ासतौर पर चुनावी राजनीति में जातिवाद (कुछ ही जातियों का वर्चस्व) सबसे कम है. मज़दूरी, दस्तकारी, खेतीबाड़ी(अधिया-बटाई और खेत मज़दूरी सहित), ढाबा स्वामित्व-संचालन,मोटर ड्राइविंग और छोटे-मोटे अपराध के धंधे में भी सामाजिक विविधता ज़्यादा दिखाई देती है.