कुमार अरविंदम/ क्या सोशल मीडिया नए विपक्ष के रूप में देखा जाने लगा है? राजनीतिक प्रबंधन में सोशल मीडिया क्यों महत्वपूर्ण होने लगा है? इस पर बन रहे जनमत से हमेशा कांग्रेस ही क्यों दबाव में आती दिख रही है? नीतीश, अखिलेश, नवीन पटनायक, करुणानिधि, ममता बनर्जी या राज ठाकरे की राजनीति के लिए क्यों महत्वपूर्ण नहीं है। सिर्फ कांग्रेस या बीजेपी के हिसाब से ही क्यों सोशल मीडिया के मैदान में घमासान के नतीजे का मूल्यांकन किया जाता है। देश में कंप्यूटर लाने का श्रेय लेने वाली कांग्रेस आज इंटरनेट पर पसरे सोशल मीडिया के तंत्र को लेकर कभी भयभीत तो कभी दंभी तो कभी अजनबी क्यों नज़र आती है? क्या सचमुच कांग्रेस सोशल मीडिया को एक नए लोकक्षेत्र के रूप में देखना चाहती है?
लेकिन क्या सोशल मीडिया पर कोई जनभावना ही नहीं है जिसे कोई भी राजनीतिक दल नकार दे। कोई नकारे भी न तो अरबों लोगों में फैले फेसबुक और ट्विटर अकांउट का पीछा कोई राजनीतिक दल कैसे कर सकता है। पीछा का मतलब नियंत्रण से नहीं है। पीछा का मतलब वहां मौजूद जनभावनाओं को राजनीतिक रूप से समझने में हैं।
Kumar Arvindam