किसी भी तरह पैसा बनाने की चाह किसी भी पत्रकार को जगतार और प्रेस क्लब को (रामगोपाल वर्मा की) 'कंपनी' बना देती है। जगतार सिद्धू के नक़्शे कदम पे चलते हुए चंडीगढ़ प्रेस क्लब ने अब एक नया शोशा शुरू किया है। लेकिन उस को समझने के लिए बहुत संक्षेप में उस के अब तक के कर्मकांड जान लेना बहुत ज़रूरी है।
ये क्लब शुरू तो हुआ तो चंडीगढ़ में ले दे के दो अख़बार थे। ट्रिब्यून और इंडियन एक्सप्रेस। दोनों के दफ्तर शहर से लगभग बाहर थे। चंडीगढ़ का एक चौराहा लेबर चौक के नाम से मशहूर तब भी था। वहां मिस्त्री, पेंटर, कारपेंटर, मजदूर सब आ जाते। जिन्हें उन की ज़रूरत होती वे आते, ले जाते अपने मतलब भर के लोग। एच एस सोढी, सुखदेव सिंह और बीके चम जैसे कुछ पत्रकारों को लगा कि शहर में पत्रकारों के मिलने के लिए भी कोई एक 'मीटिंग प्वाइंट' होना चाहिए। 27 सेक्टर में पीडब्ल्यूडी का एक स्टोर था। दो चार कुर्सियां थीं वहां। एक जेई और दो एक मेट, मजदूर बैठते थे उधर। पत्रकार वहां एक दूसरे के लिए संदेश, प्रेसनोट, आमंत्रण वगैरह छोड़ने या समय सूट करे तो मिलने के लिए आने लगे। शाम को दफ्तर बंद होने के समय तक तो ठीक था। लेकिन दिक्कत तब होने लगी जब रात को किसी का मन मदिरा के लिए भी मचलने लगा। पत्रकार लेट होने लगे तो जेई ने डुप्लीकेट चाबी उन को दे दी। कुछ महीने ऐसे ही चला जेई का कहीं तबादला हो गया। वो डुप्लीकेट चाबी मांगने आया नहीं। पत्रकारों की महफ़िल जमने लगी। बीच में एकाध बार उन्होंने कोशिश की कि ये जगह उन्हें ही अलाट हो जाए। लेकिन ये हुआ नहीं। चंडीगढ़ प्रशासन इस स्टोर की मरम्मत वगैरह करवाता रहा। स्टोर उसी का था। उस ने कभी पत्रकारों को हटाया नहीं। पत्रकार कभी हटे नहीं। नाम पड़ गया, चंडीगढ़ प्रेस क्लब। प्रेस कांफ्रेंसें यहीं होने लगीं। बिना लायसेंस के बार बन गयी और फिर बिना किसी लीज़ या किरायेदारी के किसी सबूत के बार का लायसेंस भी मिल गया।
'इवन गाड पेज़ हियर' की तर्ज़ पर नेता बाकायदा अपने मंत्रालयों के फंड से धन झड़ने लगा। अक्सर तो लायब्रेरी के नाम पर। समय के प्रवाह के साथ और भी अख़बार आए। टीवी चैनलों के पत्रकार भी। ऐसे में महत्त्व इस का भी था कि प्रदेश में चुनाव है तो 'मीट द प्रेस' का बुलावा किस पार्टी को दिया जाएगा। किस को नहीं। ये तय करने वालों का वालों का भी एक भाव था। क्लब के चुनाव खुद बहुत महत्वपूर्ण होने लगे। पंजाब, हरियाणा और खुद चंडीगढ़ यूटी की राजनीति यहाँ सीधी होती ही थी। आते अक्सर हिमाचल और कभी कभार जम्मू कश्मीर और केंद्र वाले भी थे। बहुत से नेताओं और उनकी पार्टियों के लिए ये महत्वपूर्ण होने लगा कि प्रेस क्लब के पदाधिकारी कौन हों।
'ट्रिब्यून' के पत्रकारों की और उन के वोटों की संख्या बहुत ज़्यादा थी। 'इंडियन एक्सप्रेस' उस के बाद। एक तरह का अलिखित समझौता हो गया कि प्रधान 'ट्रिब्यून' का होगा, महासचिव 'एक्सप्रेस' का। हालांकि 'जनसत्ता' भी आ जाने से बीच में एकाध बार इसका उल्टा भी हुआ। लेकिन 'पंजाबी ट्रिब्यून' के जगतार सिंह सिद्धू की तूती सिर चढ़ के बोलने लगी। वो अध्यक्ष हो गया 'ट्रिब्यून' की यूनियन का। उस में प्रूफ रीडर उस का बड़ा वोट बैंक थे। इधर क्लब में भी उस ने प्रूफ रीडरों को सदस्यता दिलवा कर अपना वोट बैंक बड़ा किया। खुद क्लब के रिकार्ड के मुताबिक़ क्लब में बिना हिसाब किताब की दारू आती ही थी। कुछ डील भी मिलती होगी क्लब की खुद की खरीदारी पे। मुफ्त की दारु चलने लगी, वोट बैंक बढ़ने लगा। क्लब पदाधिकारी चुनाव नहीं, चुनाव से पहले जगतार सिद्धू के घर पे तय होने लगे। किंगमेकर हमेशा जगतार ही रहा। 'पंजाबी ट्रिब्यून' की रिपोर्टरी, यूनियन की सरदारी और प्रेस क्लब की धमक। सरकार भी जगतार पे बलिहार थी।
उधर, जगतार के हाथ लग गया एक आप्रवासी भारतीय। उस की ज़मीन थी चंडीगढ़ के पास। देखने वाला कोई न था। जगतार ने उस के साथ प्यार डाला और फिर एक दिन उस की ज़मीन का बाकायदा खुदमुख्तार बन गया। देखभाल ऐसी कि उस ने कि वो करोड़ों रूपये की ज़मीन अपनी ही बीवी को अपनी बीवी की बजाय कागजों में उस के पिता की बेटी बता कर 'बेच' दी। मालिक को पता लगा तो भागा भागा भारत आया। थाने, तहसील से लेकर डीजीपी के दफ्तर तक सब जगह जा के सर पटका उस ने। लेकिन जिस से सरकार भी डरती हो उस जगतार से पंगा ले कौन? थक हार कर मालिक हाईकोर्ट पंहुचा। हाईकोर्ट ने एसएसपी को तलब कर लिया। कहा, खुद हाज़िर हो के बताए कि रपट कैसे नहीं लिखी। अब सब की पतलूनें ढीली। ज़मीन आखिर वापिस उस के मालिक के नाम लगी। लेकिन कहते हैं कि जगतार ने इस के लिए एक डील की। डील ये थी कि ज़मीन तो वापिस होनी है, हो ही जाएगी। लेकिन उसे धोखाधड़ी के केस में अंदर नहीं भिजवाया जाएगा। ये आम चर्चा रही शहर में कि ये डील कराने वाले उस से बीस लाख रूपये ले लेने में कामयाब हो गए। उस आप्रवासी भारतीय को ये कह के समझाया गया कि तू अपनी ज़मीन संभाल। चल। तेरे पास कहां टाइम है भारत में रह के एक और केस लड़ने का।
अब अगर बीस लाख रूपये वाली बात सच है तो जगतार सिंह बीस लाख रूपये के घाटे में है। वो भी तब कि जब 'ट्रिब्यून' ने उस को रिटायर कर दिया है। ले दे उस के पास एक अदद सरकारी नौकरी है। एक सरकारी पत्रिका का संपादक है वो। ऊपर की कोई कमाई है नहीं। सरकार से उसे इतने पैसे भी नहीं मिलते कि घर का खर्च ही चल सके। सो, उन बीस लाख और हो सके तो उस से भी कुछ अधिक के लिए अब एक खेल है। वो क्या है? .... कल बताएंगे! Written by Bureau-journalistcommunity.com
(journalistcommunity.com से साभार )