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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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चीन चीन चिल्ला के कौआ उड़ाओ

संकट की रिपोर्टिंग तो हो जाती है मगर विकल्प के किसी मॉडल को लेकर बहस भी नहीं है

रवीश कुमार। चीन में एक करोड़ तीस लाख फ्लैट ख़ाली हैं । बिल्डर और सरकार इन खाली फ़्लैटों के ख़रीदार ढूँढ रहे हैं ।  Xiaoyi Shao and Umesh Desai की रिपोर्ट पढ़ते हुए ग्रेटर नोएडा और यमुना एक्सप्रेस वे के ख़ाली फ्लैट और ठप्प पड़े प्रोजेक्ट की याद आ गई । सबकी पूँजी डूबी हुई है । जिस सेक्टर में निवेश के कई गुना हो जाने का दावा किया जा रहा था वो गहरे संकट में हैं । गुलाबी चेहरा बनाकर भविष्य बताने वाले विशेषज्ञों ने दाँत चियार दिया है । किसी दूसरे सेक्टर में करोड़पति बनने के सपने बेचने चले गए हैं ।

अब चीन चाहता है कि मध्यम वर्ग के सपनों के लिए बने इन मकानों को प्रवासी मज़दूर ख़रीद लें क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था में पंद्रह फीसदी का योगदान करने वाला रियल इस्टेट सेक्टर ठप्प हो गया है । चीन की सरकार चाहती है एक अरब वर्ग मीटर के बराबर ख़ाली इन मकानों को मज़दूर ख़रीदें । इतने मकानों में आस्ट्रेलिया की पूरी आबादी समा सकती है । आप जानते हैं कि चीन की अर्थव्यवस्था ढलान और मंदी की तरफ जा रही है ।

समस्या यह है कि प्रवासी मज़दूर की आर्थिक क्षमता मकान ख़रीदने की नहीं है । इन्हें गाँवों से इसलिए ज़बरन उजाड़ा गया ताकि ये विकास के मॉडल वाले शहरीकरण के लिए सस्ते श्रम के रूप में काम आ सके । चीन में गाँव के गाँव उजाड़ कर वहाँ अपार्टमेंट बना दिये गए । भारी संख्या में नए बने अपार्टमेंटों को गिराया भी गया क्योंकि उन ख़ाली मकानों में कोई रहने वाला नहीं था । वहाँ की सरकार सोच रही है कि इन मज़दूरों को बैंक से क़र्ज़ तो मिलेगा नहीं, इसलिए सब्सिडी दे दी जाए । मगर चीन की अर्थव्यवस्था की हालत इन खाली मकानों को बिकवाने की नहीं है । बिल्डर अब इन फ्लैट के दाम और कम नहीं कर सकते । रायटर्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि सब शहर में आना चाहते हैं मगर पैसा कहाँ है । 27 करोड़ प्रवासी मज़दूरों की बात हो रही है ।

दूसरी तरफ आप चीनी मीडिया साइट देखेंगे तो हर दूसरे दिन बुलेट ट्रेन के ट्रैक की तस्वीर होती है । चीन रियल इस्टेट की तरह रेलवे में निवेश किये जा रहा है । इन तस्वीरों से कभी नहीं लगेगा कि वहाँ की अर्थव्यवस्था अमीर कम, गरीब ज्यादा पैदा करती है । गाँवों से बीजिंग आए कामगार कहते हैं कि मौका मिला तो अपने गाँव के पास ही कोई काम करना चाहूँगा । क़ीमत इतनी है कि इन शहरों में रहना असंभव है । इसका असर मध्यम वर्ग भी पड़ेगा । मकानों की क़ीमत गिरेगी तो उनका निवेश डूब जाएगा । ये तो वैसे दिल्ली नोएडा में भी हो रहा है ।

समस्या हमारी भी है । अर्थव्यवस्था के दूसरे मॉडल की न तो समझदारी है न उदाहरण मौजूद हैं और हम खोजते भी नहीं है । संकट की रिपोर्टिंग तो हो जाती है मगर विकल्प के किसी मॉडल को लेकर बहस भी नहीं है । एक बड़ा मूल कारण हम जैसे पत्रकारों की जानकारी का कमज़ोर आधार है । हम एक सीमित दुनिया के अनुभवों की परिधि में फँसे हुए हैं । नतीजा आप पाठकों की जानकारी का स्तर भी दयनीय हो जाता है । कुछ सचेत लोग हैं जो यहाँ वहाँ से जानकारी जुटाते रहते हैं मगर इनकी संख्या नगण्य है ।

मेरे मित्र ने एक लिंक भेजा है। http://longforecast.com/fx/indian-rupee-to-dollar-forecast-for-2015-2016-and-2017.html इसके अनुसार इस साल डॉलर के मुक़ाबले हमारा रुपया काफी कमज़ोर रहने वाला है । इस साइट ने हर महीने के हिसाब से डॉलर के मुक़ाबले हमारे रुपये की वीरता का न्यूनतम और अधिकतम मान दिया है । जिसके अनुसार इस साल एक डॉलर के आगे हमें कम से कम 67 रुपयों को खड़ा करना होगा । मई के बाद डॉलर से मुक़ाबला करने के लिए हमें 73 से लेकर 74 रुपयों की सेना भेजना होगी । आपने पिछले साल देखा । क्या यह देश के लिए अच्छा होगा ?

 

 

2015 की जी डी पी के लिए 8 और 8.5 प्रतिशत रफ़्तार दर की भविष्यवाणी की गई थी । वित्त मंत्री ने साल समाप्त होने पर इस भविष्यवाणी के झूठा साबित होने की जवाबदेही तो नहीं ली लेकिन चतुर वाक्य विन्यास के सहारे कह दिया कि अब भी हम दुनिया की सबसे तेज़ बढ़ती अर्थव्यवस्था हैं । अगर दुनिया के कई मुल्कों की जीडीपी चार पर आ जाए तो क्या हम पाँच पर भी ढिंढोरा पीटने लगेंगे ! वैसे कई जानकार तो यह भी लिख रहे हैं कि भारत की जीडीपी की असली रफ़्तार दर पाँच के आस पास ही है । फेलियर को देखकर टॉपर ख़ुश हुआ तो वह इसी गुमान में रह जाएगा कि साठ प्रतिशत लाकर ज़िला टॉपर है । इतने में तो अच्छे कॉलेज में दाख़िला भी नहीं होगा । ज़ाहिर है हमारे पास अपना कोई मॉडल नहीं है । हम लोग भी फेलियर छात्र की तरह घर पहुँचकर बताने वालों में से है कि इस बार सवाल ही मुश्किल आए थे । सबका रिज़ल्ट ख़राब हुआ है !

वैसे जी डी पी की इस राजनीति को समझने की क्षमता सामान्य पाठकों में नहीं है । मैंने भी अपने लिए जितना भी प्रयास किया नाकाफ़ी ही रहा ।यह मूर्ख बनाने का नया तिकड़म है ।बंगाल के गाँवों में पोस्टर लगे हुए हैं । इन पोस्टरों पर भारत और बंगाल की जीडीपी का ग्राफिक्स बार बना हुआ है । बंगाल का जी डी पी दस से ज्यादा है । भारत का कम । हमारी राजनीति के इस नए मेहमान का स्वागत है । जब सबके पास ग्राफिक्स बार और चार्ट बनाने के इतने ही आँकड़े हैं तो एक बार सहला बना दो कि कितनों को नौकरी मिली, कितनों की सैलरी बढ़ी । लोगों की आर्थिक क्षमता में कितना विकास हुआ और वो विकास महँगाई दर के अनुपात में नकारात्मक है या सकारात्मक । निर्माण कार्यों में सीमेंट और लोहे की खपत बढ़ा कर हम जी डी पी तो बढ़ा सकते हैं लेकिन क्या हमने सोचा है कि हम भी एक दिन चीन की तरह आख़िरी स्टेशन पर पहुँचने वाले हैं ?

(रवीश कुमार जी के ब्लॉग कस्बा से साभार)

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सम्पादक

डॉ. लीना