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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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देश की सत्ता पर काबिज होना है, तो दलितों का साथ जरूरी

शर्त ये है कि पहले भरोसा कायम किया जाए

दिनेश कुमार / पिछले दिनों कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने दलित नेतृत्व पर बड़े ही अच्छे ढंग से अपने मत व्यक्त किए। विज्ञान भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि बाबा साहेब डा. भीमराम आंबेडकर के बाद बसपा संस्थापक कांशीराम ने दलितों का बहुत अच्छा नेतृत्व किया, जबकि उनके बाद मायावती सिर्फ सत्ता सुख के लिए अन्य दलित नेताओं को उभरने नहीं दे रही हैं। दलितों में नए लीडरशिप की आवश्यकता है और यदि सही में दलितों का उत्थान करना है तो पार्टी में दलित लीडरशिप को प्राथमिकता देनी होगी। हालांकि फिर भी बसपा सुप्रीमो मायावती को अब भी सबसे बड़ी वर्तमान दलित नेता के रूप में देखा जा रहा है जबकि उदित राज, रामदास आठवले, वामन मेश्राम, रामविलास पासवान, प्रकाश आंबेडकर, जोगेंद्र कवाड़े, सुशीलकुमार शिंदे, पीएल पुनिया सहित सैकड़ों की संख्या में दलित नेता काफी बौने साबित हो रहे हैं। इसका कारण है एकमुश्त दलितों का बहुजन समाज पार्टी के साथ संगठित होना। अब सवाल यह उठता है कि दलितों से संबंधित समस्याओं के खिलाफ आवाज आखिर कौन उठाता है और उन्होंने इतने सालों में पार्टी को कितना आगे बढ़ाया है, समाज को कितना संगठित किया है और समाज की समस्याओं पर कितना ध्यान दिया और उनके लिए क्या लड़ाईयां लड़ी हैं। 
महाराष्ट्र में आरपीआई नेता रामदास आठवले ने पूरी पार्टी भाजपा-शिवसेना के हवाले करने के बाद भी दो-तीन सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हां कभी कभार संविधान के अपमान के लिए रैली निकाल लेते हैं तो कभी इंदू मिल में बाबा साहब के स्मारक के लिए भी प्रदर्शन करते दिखाई देते हैं। लेकिन हमारी जो मूल समस्याएं हैं जैसे दलितों का जीवन स्तर, शिक्षा, उनके सम्मान और रोजी-रोटी की लड़ाई लड़ते वे बहुत कम ही दिखाई देते हैं। यहां तक कि संगठन के भी विस्तार पर उनका ध्यान कम ही रहता है। 
अब बात उदित राज की करें तो वे वर्षों से नेशनल जस्टिस पार्टी के बैनर तले संघर्ष कर रहे हैं, दलितों को संगठित कर रहे हैं फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर अनुकूल पहचान बनाने में असफल हैं। हां सोशल मीडिया पर आजकल उनके सभाओं की फोटो आदि दिखाई दे जाती हैं या चुनावों के दौरान एक-दो बार चर्चा में आ जाते हैं। 
रामविलास पासवान की पूरी राजनीति बिहार तक ही सीमित है और हर चुनाव के बाद जीती हुई सीटों के साथ जिसकी सरकार बनती देखते हैं उसी तरफ हो जाते हैं। हमने आज तक उन्हें दलितों के किसी लड़ाई में शामिल होते न ही देखा और ना सुना। हां कभी कभार मीडिया से बात करते हुए दलितों के बारे में बात करते जरूर सुन या देख लेते हैं। इसी तरह प्रकाश आंबेडकर, जोगेंद्र कवाड़े भी सिर्फ महाराष्ट्र तक सीमित हैं और अपनी जरूरतों के हिसाब से अपनी लड़ाईयां लड़ लेते हैं। और बात अगर वर्तमान केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे की करें तो मुझे नहीं लगता कि उनका कोई दलित सरोकार है। वे कांग्रेस पार्टी में सिर्फ एक दलित चेहरा भर हैं। अगर गौर किया जाए तो कांग्रेस संगठन में भी दलितों को कोई खास स्थान नहीं है। आखिर दलितों पर हुए अत्याचारों पर इन दलित नेताओं का खून क्यों नहीं खौलता? उस समय उन्हें सुरक्षा, न्याय और बराबरी का हक दिलाने के लिए लड़ाई क्यों नहीं लड़ते। क्या सिर्फ कैमरे के सामने मांग करने या बात करने भर से ही लड़ाई होती है? 
यदि हम बात मुद्दों की करें तो सबसे पहले हमें व हमारे परिवार का पालन पोषण जरूरी है, फिर बच्चों की पढ़ाई और रहने के लिए घर तथा सम्मान जनक जिंदगी। जो कि इस आजाद देश में आज भी बहुसंख्यक दलित समाज को नसीब नहीं हो पा रहा है।
हमें सबसे पहले रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और सम्मान जैसी समस्याओं को लेकर आवाज उठाने वाले लीडर की जरूरत है।  उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार यूं ही नहीं बन गई थी। ना जाने कितने दलितों ने अपनी जान गंवाई है, ना जाने कितनों की बहू-बेटियों की इज्जत गई है, ना जाने कितनों के घर जला दिए गए और इसके बाद भी समाज के तमाम युवा तब तक लड़ते रहे जब तक कि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार नहीं बन गई। उसका नतीजा भी सामने आया।  
कुछ हद तक दलितों को सम्मान मिला, थानों में उनकी सुनवाई होने लगी, उनके खेत जो दूसरे कब्जा किए हुए थे उन्हें वापस मिले। दूसरे समाज के लोगों को यह अहसास हुआ कि इनका भी आत्मसम्मान है इनके पास भी ताकत है। लेकिन दूसरी बार सरकार बनने के बाद संघर्ष करने वाले तमाम युवा ऐसे दरकिनार कर दिए गए जैसे इन्होंने कुछ किया ही ना हो। पार्टी के करीब वे आ गए जिनसे कभी यही दलित युवा पार्टी के लिए लड़ाईयां लड़ा करते थे।  सारा लाभ उन्हें मिलने लगा। इसका नतीजा यह रहा कि अगले चुनाव में बहुजन समाज पार्टी की बुरी तरह हार हुई और अब वह उत्तर प्रदेश में विपक्ष में बैठी दिखाई दे रही है। बात यह भी ध्यान देने वाली है कि इन्हीं दलितों के भरोसे कांग्रेस ने अपने दम पर पूरे देश में राज किया और जब साथ छोड़़ा तो नतीजा आपके सामने है। पहले तो पांच साल के लिए सत्ता से बाहर हो गए, और जब बाद में सरकार बनी भी तो कई पार्टियों ने मिलकर समर्थन दिया तब। आज राहुल गांधी को समझ में आ गया है कि इन्हें साथ लिए बिना देश में मजबूत सरकार बनाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

लेखक -वरिष्ठ पत्रकार है और मुंबई में रहते हैं ।

 

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सम्पादक

डॉ. लीना