वही खबरें सुर्खियां बन पाती हैं, जिनके पीछे बाजार दौड़ा चला आए
तरुण शर्मा। पिछले साल के अंत दिसम्बर में दिल्ली में हुए दामिनी गैंगरेप के बाद भारत का मीडिया ‘रेपमय‘ हो गया. पूरे एक महीने तक हर चैनल पर 24 घंटे दामिनी गैंगरेप और बलात्कार के ऊपर लाइव कवरेज, खबरें, विशेष कार्यक्रम छाये रहे. ऐसा लगा मानो इलेक्ट्रानिक व प्रिंट मीडिया महिलाओं के खिलाफ अत्याचार व बलात्कार के खिलाफ जनचेतना की एक निर्णायक जंग छेड़ने जा रहा है.
मगर असलियत में मीडिया के लिए इस पूरे प्रकरण में दामिनी गैंगरेप मध्यम वर्ग के बीच आसानी से बिकने वाली एक खबर मात्र थी. जो जितना ज्यादा दिखेगा वो विज्ञापनों में उतना ज्यादा बिकेगा ही मीडिया बाजार का मूल मंत्र है. मीडिया में वही खबरें सुर्खियां बन पाती हैं, जिनके पीछे बाजार दौड़ा चला आए.
खबरों का एक सामाजिक मूल्य होता है और दूसरा बाजारू. सामाजिक मूल्य का मतलब समाज को उस खबर से मिली सूचना का महत्व है. यह महत्व अलग-अलग वर्ग के लिए अलग-अलग हो सकता है. खबरों के बाजारू मूल्य से मतलब है अमुक खबर के बाद किस तरह का बाजार बिकने के लिए दर्शकों के रूप में उपलब्ध हो सकता है. दिल्ली गैंगरेप वाली खबर भी बाजार में बिकने वाली खबर थी, इसलिए मीडिया ने इसे ज्यादा से ज्यादा तूल दिया.
दामिनी गैंगरेप के कुछ दिनों बाद ही जब पूरा देश विशेषकर राजधानी दिल्ली सड़कों पर थी, मीडिया 24 घंटे एक-एक पल दामिनी गैंगरेप के विरूद्ध आंदोलन की खबर दे रहा था समाजशास्त्रियों, कानूनविदों से लेकर मनोचिकित्सकों को अपने पैनल में शामिल कर बलात्कार के ऊपर लाइव कार्यक्रम दिखा रहा था, उसी समय आदिवासी इलाकों से दिल्ली में घरेलू कामकाज के लिए आयी आदिवासी लड़कियों के भयंकर यौन शोषण और उन्हें 'सैक्स गुलाम' के रूप में एक लंबे समय तक रखे जाने का मामला सामने आया था.
सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश के सहयोग से उन लड़कियों को मुक्त करवाया गया. इंसाफ पाने की उम्मीद और बलात्कार के ऊपर चौबीसों घंटे मंथन कर रहे मीडिया की तरफ से इस मामले में पहलकदमी लेने के लिए बंधुआ मुक्ति ने एक प्रेसवार्ता रखी थी. इसकी सूचना देशभर के मीडिया को दी गई थी. देश के दर्जनभर प्रिंट व इलैक्ट्रानिक मीडिया वाले इस प्रेस कांफ्रेंस में आये, मगर हैरानी की बात है कि आदिवासी लड़कियों के बलात्कार की यह खबर मीडिया में जगह ही नहीं पा सकी.
महाराष्ट्र के भंडारा जिले में एक विधवा की तीन नाबालिग बेटियों का बलात्कार करने के बाद उनकी हत्या कर दी गयी. इतने से भी बलात्कारियों का मन नहीं भरा तो उनकी लाश को कुएं में फेंक दिया गया. मगर इस वीभत्स और इंसानियत को शर्मसार कर देने वाली घटना को जगह देना मीडिया ने मुनासिब नहीं समझा. न ही इस घटना के विरोध में कोई आन्दोलन हुआ. यहाँ तक की आज का सबसे सशक्त माना जाने वाले फेसबुक में भी इस घटना का बहुत जिक्र नहीं कर सका
एक और मामला लगभग उसी समय सोनी-सोरी को लेकर जंतर मंतर से सर्वोच्च न्यायालय तक निकाली गई न्याय यात्रा था. इसमें सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश हिमांशु कुमार, प्रशांत भूषण के साथ बड़ी संख्या में छात्रों ने हिस्सा लिया. मगर एकाध पत्रकारों को छोड़ बाकी मीडिया ने इस खबर को सिरे से नकार दिया. समझने वाली बात है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ. दिन रात बलात्कार पर मनन- चिंतन करने वाले मीडिया ने आखिर इन खबरों के साथ ऐसा पक्षपातपूर्ण और उपेक्षा भरा व्यवहार क्यों किया.
हाल की भंडारा व मंगोलपुरी बलात्कार कांड की घटनाओं के बाद उमड़े जनाक्रोश का पुलिस ने बेरहमी से दमन किया. शायद पुलिस भी यह पहचानने के बाद कि जो वर्ग बाजार के लिए सशक्त खरीददार नहीं दिख रहा, उस पर उतनी सख्ती से बल प्रयोग किया जा सकता है, के आधार पर काम करने लगी है. मीडिया ने भी जल्दी ही इस घटना को भुला दिया, जबकि अभी तक किसी अपराधी की गिरफ़्तारी तो नहीं हो पाई है. हां, आन्दोलन करने वाली जनता जरुर पुलिस रिमांड में है.
दरअसल, दामिनी गैंगरेप के बाद दिल्ली का संपन्न सोशल साइट्स का उपयोगकर्ता वर्ग महिलाओं की सुरक्षा के लिए सड़कों पर उतरा, जिसमें वह मीडिया के लिए आसानी से बिकने वाली बढि़या बाजारी मूल्य वाली खबर बन गई. मीडिया जानता था कि आदिवासी लड़कियों से बलात्कार वाली खबर से न तो के टीआरपी बढ़ेगी, न ही इन खबरों के पीछे बाजार आएगा. इसलिए इसे कोई तवज्जो ही नहीं दी गयी.
सोनी सोरी से मीडिया इसलिए दूर है या उसकी पूरे तथ्यों के साथ रिर्पोटिंग करने में इसलिए परहेज कर रहा है, क्योंकि ऐसा करने से तमाम आदिवासी इलाकों में आदिवासियों को उनके मूल संसाधनों से उजाड़कर हिंसा, अत्याचार, अन्याय की बुनियाद पर वहां के संसाधनों को किसी भी अमानवीय कीमत पर बाजार को सौंपने के लिए तत्पर राजसत्ता पुलिस और न्याय व्यवस्था के नापाक गठजोड़ का नंगापन सामने आ जाता. और बाजार के इस हमाम में मीडिया खुद नंगा है. ( janjwar.com से साभार )