पुलिस की पोल खोलने पर पत्रकार को फंसाने की साजिश
जिलाधिकारी को आवेदन दे पत्रकारों ने की पत्रकारिता और पत्रकार की सुरक्षा की मांग
डा.अशोक प्रियदर्शी / जब कोई पत्रकार किसी सवाल को उठाते हैं तो अगले दिन से उन्हें उम्मीद लगी होती है कि उस सवाल के निपटारे की दिशा में सरकार/प्रशासन ने कितनी संजीदगी दिखाई। लेकिन आरोपियों पर कार्रवाई के बजाय जब सवाल उठाने वालों पर ही कार्रवाई होने लगे तो इसे क्या कहेंगे? शायद नौकरशाही सेंसरशिप।
पिछले दिनों नवादा में टाइम्स आफ इंडिया के पत्रकार प्रो शशिभूषण सिन्हा के साथ कुछ ऐसा ही हुआ, जब उन्होंने एसपी ललन मोहन प्रसाद की लापरवाही को अखबारों के जरिए जाहिर किया। हुआ यूं कि कोर्ट के आदेश के आलोक में प्रो सिन्हा ने एसपी की भूमिका पर सवाल उठाया। रजौली के थाना प्रभारी विंध्याचल प्रसाद की गिरफ्तारी के लिए एसपी के जरिए तीन बार कोर्ट से नोटिस किया गया था, फिर भी उस दारोगा को कोर्ट में सरेंडर नही कराया गया। सवाल था कि गैर जमानतीय वारंट का मतलब आमजन और पुलिस के लिए अलग है? यह रिपोर्ट एसपी साहेब को उनकी ‘नौकरशाही’ कार्यप्रणाली के विरूद्ध लगी।
चूंकि एसपी साहेब जिले में अपनी छवि इस रूप में पेश करते रहे थे कि वह मुख्यमंत्री की सुरक्षा में बतौर डीएसपी रहे थे। लिहाजा, आगे कोई और पत्रकार ऐसा कदम नही उठाए इसलिए एसपी साहेब ने सवाल उठाने वाले पत्रकार को ही सवाल बना दिए जाने की पूरी योजना बना डाली। रिपोर्ट छपने के 24 घंटे के भीतर ही प्रो. सिन्हा के वारिसलीगंज के मकनपुर स्थित घर पर पुलिस की मौजूदगी में कृषि विभाग की टीम उनकी खाद दुकान की जांच करने चली गई। लेकिन नतीजा सिफर रहा।
अब जब मामला सार्वजनिक हो गया तब पुलिस का कहना है कि उनकी कोई भूमिका नहीं है। लेकिन जानने वाली बात यह है कि कृषि विभाग की टीम रात में नियमित चेंकिग के लिए कभी भी ऐसा कदम नही उठाती और नही इतनी संख्या में पुलिस के साथ गई। लेकिन एसपी साहब की थाना प्रभारी के प्रति सहानुभूति की दाद देनी पड़ेगी, जिन्होंने हाय तौबा मचने के बाद रजौली से हटाकर पुलिस लाइन कर दिया, लेकिन रजौली में किसी दूसरे थाना प्रभारी को पदस्थापित नही किया। ताकि जमानत मिलने के बाद थाना प्रभारी को फिर उसी जगह पदस्थापित किया जा सके। हालांकि एसपी साहेब का थाना प्रभारी से मेहरबानी की वजह क्या है, वह वे जाने लेकिन इस बात को लेकर भी बड़े सवाल उठ रहे हैं।
गौरतलब हो कि दरोगा के खिलाफ एक अधिवक्ता को जबरन गिरफतार करने, अपमानित करने और मारपीट के मामले में कोर्ट से गिरफतारी वारंट जारी किया था। लेकिन इस प्रकरण में अखबार का धन्यवाद, जिन्होंने मुफलिसी पत्रकार के साथ इस पुलिसिया ज्यादती को प्रमुखता से उठाया। वरना एसपी साहेब ने तो नौकरशाही का नमूना दे ही दिया था।
राज्य मानवाधिकार आयोग ने पुलिस महानिदेशक और एसपी से दो सप्ताह में रिपोर्ट तलब किया है। आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एसएन झा ने प्रकाशित रिपोर्ट के आधार पर कहा कि यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात सा प्रतीत होता है।
इधर, जिले के पत्रकारों ने एक बैठक कर एकजुटता दिखाने की कोशिश की और जिलाधिकारी को आवेदन देकर पत्रकारिता और पत्रकार की सुरक्षा की मांग की। बहरहाल, सोचने वाली बात यह है कि पत्रकारिता को भी ऐसे नौकरशाह अपनी मर्जी से चलाने लगेंगे तो संपादकों की भूमिका क्या रह जाएगी?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है )