Menu

 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

Print Friendly and PDF

लोकतंत्र के बेसिक के ख़िलाफ़ है फ्री बेसिक

रवीश कुमार। आजकल आप अपने अख़बार में फेसबुक का विज्ञापन देख रहे होंगे । एक ही बात को कहने के लिए फेसबुक हर दूसरे तीसरे दिन चार चार पन्ने का विज्ञापन दे रहा है । बाज़ार से लेकर हवाई अड्डे तक फेसबुक ने फ्री बेसिक के विज्ञापनों से भर दिये हैं । फेसबुक इन महँगे विज्ञापनों के ज़रिये अपने उत्पाद के लिए एक आंदोलन चला रहा है । आंदेलन का उसका तरीका जनलोकपाल और मिस्ड कॉल के ज़रिये दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनने का दावा करने वाली बीजेपी से मिलता जुलता है । फेसबुक अपने इस अभियान के ज़रिये भारत सरकार की संवैधानिक संस्था TRAI पर दबाव डाल रहा है । इसलिए चाहता है कि आप उसके दिए नंबर पर मिस्ड कॉल करें ।

फेसबुक को टेलीकॉम नियामक संस्था TRAI के एक फ़ैसले से आपत्ति है इसलिए कंपनी लाखों मिस्ड काल और ईमेल के ज़रिये जनदबाव की लहर पैदा करना चाहती है ताकि TRAI उसके मनोनुकूल फ़ैसला दे । मिशी चौधरी जैसी हस्तियाँ फेसबुक की फ्री बेसिक योजना को छलावा मानती हैं और अभियान चला रही हैं । फेसबुक इन नेट- कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ भी अभियान चला रहा है । आप भले न मिशी चौधरी के लेख को पढ़ पायें हों लेकिन उनकी दलील के ख़िलाफ़ फेसबुक का अभियान आप तक पहुँच गया है । ये है ताकत और संसाधन का खेल । केरल में एक कंपनी ने पंचायत पर ही कब्जा कर लिया । इसलिए फेसबुक के इस विज्ञापन युद्ध पर गंभीरता से विचार करना चाहिए ।

हमारे राजनीतिक दल सोते रहते हैं । इससे पहले एयरटेल ज़ीरो के प्लान को लेकर जब विरोध हुआ तब भी सो रहे थे । गनीमत है कि उस वक्त सरकार जल्दी जाग गई और मंत्री भी नेट न्यूट्रालिटी के हक में बयान देने लगे । सोशल मीडिया पर बने सीमित जनदबाव के आगे एयरटेल कंपनी ने अपनी योजना वापस ले ली । एयरटेल से आगे निकल फेसबुक कंपनी जनता के बीच चली गई है । वो अपने प्लान ‘फ्री बेसिक’ का विरोध कर रहे नेट- कार्यकर्ताओं और TRAI के खिलाफ जनसमर्थन जुटा रही है।

मुझे नहीं पता या फेसबुक ने अभी तक नहीं बताया कि कितनो मिस्ड कॉल आए हैं और उनकी सत्यता की जाँच कैसे की जा रही है । जो ईमेल भेजे जा रहे हैं उनकी सत्यता की जाँच करने का अधिकार और संसाधन TRAI के पास है या नहीं या TRAI जाँच करेगी भी या सिर्फ संख्या को राय मान लेगी । नियामक संस्था संख्या के आधार पर फ़ैसला करती है या अपनी नीतियों पर विचार करने के बाद फ़ैसला लेती है । क्या TRAI कोई लोकसभा है जिसका चुनाव फेसबुक अखबारों के मैदान में जाकर लड़ रही है ? क्या TRAI को फेसबुक को नोटिस नहीं भेजना चाहिए कि उसका ऐसा करना ही नेट न्यूट्रालिटी की सोच के ख़िलाफ़ हैं क्योंकि बाकी पक्ष के पास तो फेसबुक जितने अरबों रूपये नहीं है कि वो विज्ञापन देकर मिस्ड कॉल के कृत्रिम जनांदेलन में शामिल हो सके ।

क्या यह हमारे राजनीतिक दलों के लिए चिन्ता की बात नहीं ? क्या फेसबुक राजनीति का विकल्प पेश कर रहा है ? क्या यह कंपनियों की तरफ से यह राजनीतिक हस्तक्षेप का कोई नया रूप है ? मान लीजिये कि कोई भारतीय कंपनी नरेंद्र मोदी सरकार की किसी नीति के ख़िलाफ़ इस तरह से विज्ञापन युद्ध की घोषणा कर दे तो क्या सरकार चुपचाप सहन कर लेगी ? फिर फेसबुक जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को यह छूट क्यों मिल रही है ? क्या फेसबुक का यह क़दम TRAI की स्वायत्तता पर हमला नहीं है ? तो हमारी सरकार और हमारा विपक्ष चुप क्यों है ?  क्या इसलिए चुप हैं कि फेसबुक के मुख्यालय में जाकर हमारे नेताओं को नौजवान और फैशनेबुल होने का मौका मिलता है ? तो क्या TRAI को भी जवाबी विज्ञापन नहीं देना चाहिए कि उसके हिसाब से मामला क्या है ? जो सरकार इस बात पर नज़र रखती है कि कोई NGO विदेशी फंड से भारत में राजनीतिक गतिविधि न चलाए वो सरकार फेसबुक को राजनीतिक गतिविधि कैसे चलाने दे रही है ?

फ्री बेसिक क्या है ? फेसबुक कंपनी दावा करती है कि तीस देशों में लागू हैं । अमरीका या फ्रांस में है ? अमरीका में फ्री बेसिक क्यों नहीं है ? क्या वहाँ ग़रीब नहीं हैं ? थोड़ा बहुत पढ़कर लगा कि फ्री बेसिक ग़रीबी उन्मूलन का कोई कार्यक्रम है ! वैसे  चीन में तो फेसबुक नहीं है । पता नहीं वहाँ के ग़रीब क्या करते होंगे ।  फेसबुक के विज्ञापन में लिखा है कि ” एक अरब भारतीयों को नौकरी, शिक्षा, ऑनलाइन के अवसरों और बेहतर भविष्य से जोड़ने का पहला क़दम है । ” । सरकार का सारा लोड फेसबुक ले ले तो सरकार ही क्यों रहे ! विज्ञापनों पर फेसबुक ने इतना पैसा खर्च कर दिया लेकिन यही नहीं बताया कि फ्री बेसिक के तहत क्या सुविधा मिलेगी और कितने साल तक मिलेगी ।

भारत में करीब एक अरब लोगों के पास फोन है । क्या भारत सरकार यह मानती है कि जिसके पास फोन है वो ग़रीबी रेखा से नीचे है या ऊपर ? हमें नहीं मालूम । अगर ग़रीबी रेखा से ऊपर है तो फिर फेसबुक किसे ग़रीबी से बाहर लाएगा । क्या ग़रीबी सिर्फ सूचना की कमी के कारण है ? अगर सबको सूचना हो तो ग़रीबी नहीं रहेगी ? ये किस अर्थशास्त्री का फ़ार्मूला है ? क्या हमारी सरकारों ने इतनी तादाद में अवसरों का सृजन कर दिया है ? इस हिसाब से तो फेसबुक को यह दावा करना चाहिए कि उसके कितने यूज़र मिडिल क्लास से अपर क्लास में चले गए और उसमें फेसबुक का कितना योगदान रहा ? क्या फेसबुक सिर्फ ग़रीबों का क्लास ही बदलता है ! एकाध क़िस्सों से बदलाव की गाथा नहीं बनती ।

अमरीका में एक मोबाइल कंपनी है T-Mobile । इस कंपनी ने binge on नाम से एक सेवा शुरू की है । इसके तहत निश्चित डेटा प्लान के लिए कुछ वीडियों चैनलों को असीमित मात्रा में देखने की छूट होगी । इसमें यू ट्यूब नहीं है । यू ट्यूब ने आरोप लगाया है कि मोबाइल कंपनी ने अपनी सेवा में यू ट्यूब के वीडियो को कमज़ोर कर दिया है । मतलब आप T-Mobile के उपभोक्ता है और यू ट्यूब पर कोई वीडियो देखना चाहते हैं तो वह रूक रूक कर आएगा । उसकी गुणवत्ता ख़राब होगी । डेली हेरल्ड अख़बार ने लिखा है कि फेन कंपनी अपने इस प्लान को सभी थ्री जी उपभोक्ता को दे रही है । इस तरह से कंपनी ने बड़े उपभोक्ता वर्ग की पहुँच यू ट्यूब से दूर कर दी । जो लोग बिंज ऑन प्लान नहीं लेते हैं उनके फोन पर बाकी वीडियो चैनल की क्वालिटी खराब कर दी जाती है ।

न्यूज चैनलों की दुनिया में ये हो चुका है और हो रहा है । आप जानते हैं कि केबल में एक से सौ तक चैनल आते हैं । सौवें नंबर पर जो चैनल आएगा वो साफ नहीं आएगा या आप उतनी दूर तक सर्च नहीं करना चाहेंगे । इसलिए केबल वाले पहले दस में दिखाने के लिए चैनलों से अनाप शनाप पैसा लेने लगे और चैनल भी देने लगे । धीरे धीरे ये रेट इतना महँगा हो गया कि टीवी पत्रकारिता की तबाह हो गई । टीवी की सारी कमाई कैरेज फ़ीस देने में जाने लगी । इसके कारण धंधे में ब्लैक मेलिंग होने लगी और राजनीतिक दल भी घुस आए । जिसे जब मन करता है किसी चैनल को उड़ा देता है । केबल वाला मनमाने पैसे माँगता है ।

इस कारण खबरों के संकलन और पत्रकारों के भर्ती से लेकर पालन पोषण के खर्चे में कटौती होने लगी । पत्रकार समाप्त हो गए और खर्चे को कम करने के लिए दो चार एंकरों को स्टार बनाकर काम चलाया जाने लगा । ये जो आप बहस देखते हैं ये उसी का नतीजा है । इससे आपको क्या नुक़सान हुआ ? ये तब पता चलेगा जब आप किसी बात से प्रभावित होंगे और सरकार का ध्यान खींचने के लिए चैनलों के दफ्तर फोन करेंगे । कोई नहीं आएगा क्योंकि खबर की जगह तो पूरी शाम बहस चल रही होती है । निगम वाले रिश्वत न देने पर आपका मकान तोड़ जाएँगे और वाइस चांसलर अपनी मनमानी करता रहेगा । ख़बर होगी भी तो स्पीड न्यूज से ज्यादा नहीं होगी । शाम की प्राइम टाइम में आम लोग मारे जाते हैं ।

इसी तरह से मोबाइल कंपनियाँ रास्ता खोज रही हैं ताकि इंटरनेट की समतल भूमि पर तरह तरह की दीवारें बनाईं जा सकें और हर दीवार लाँघने की क़ीमत अदा करनी पड़े । सोचिये आप कोई ऐप बनाकर गूगल में डालते हैं । गूगल अपने सर्च ईंजन में आपके ऐप पर तरह तरह की बंदिशें लगा दे कि कोई खोज ही न सके और आप से दाम माँगे तो आप क्या करेंगे ? इससे तो टेलीकाम कंपनियाँ और कुछ बड़ी कंपनियाँ मिलकर बाक़ियों को बाहर कर देंगी। इससे तो नुक़सान हो जाएगा । इंटरनेट का इस्तमाल बिना रोक टोक होना चाहिए । कोई कंपनी यह तय न करे कि आप इतनी ही साइट देखेंगे। उस सूची में आने के लिए साइट या कंपनियों के बीच होड़ होगी । ऐसी होड़ केबल टीवी में होती है ।

इसीलिए यह लड़ाई लड़ी जा रही है कि नेट न्यूट्रालिटी होनी चाहिए । जैसे मैं इस लेख को लिखते समय मार्क जुकरबर्ग के लेख के लिए गूगल पर गया जो टाइम्स आफ इंडिया में आया है । कई बार उस लेख को खोला मगर दो पैराग्राफ़ से ज़्यादा नीचे की तरफ स्क्रोल नहीं हुआ । मैंने कई बार प्रयास किया लेकिन लेख नहीं पढ़ पाया जबकि उसी वक्त अपने मोबाइल पर कई लेख डाउनलोड कर स्क्रोल किया लेकिन कोई दिक्कत नहीं आई । क्या यह जानबूझ कर किया गया ? क्या फेसबुक भी ऐसा करता है ? क्या वो सारे लेखों को वैसी उदारता से साझा करने देता है कि सब देख सकें ? करता है या नहीं यह तो जानना ही चाहिए लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या हम जानते हैं ? वैसे काफी मशक़्क़त के बाद ज़करबर्ग का लेख स्क्रोल होने लगा ।

फ्री बेसिक को लेकर बहस में बराबरी होनी चाहिए । दोनों तरफ से सारी सूचनाएँ पब्लिक में आनी चाहिए । फेसबुक, विरोध करने वाले, ट्राई, नैसकॉम । सब अपनी बात पब्लिक में रखें । मान लीजिये फेसबुक कंपनी किसानों को मौसम समाचार बताने का ऐप देगी लेकिन मौसम की जानकारी तो सरकार के भारी निवेश से हासिल होती है । उपग्रह किसके पैसे से भेजे जाते हैं ? मौसम और तापमान बताने के ऐप तो हर फोन में मुफ़्त होने ही चाहिएं । यह तो वैसे ही मेरे फ़ोन पर है लेकिन फेसबुक कंपनी इसे फ्री बेसिक में शामिल कर हमें क्या देना चाहती है ? एक बात आप पाठक लोग ध्यान से समझ लीजिये । अस्पताल नहीं बनेंगे, डाक्टर नहीं होंगे तो ऐप बनाकर मरीज़ों की भीड़ कम नहीं हो जाएगी । किसी चीज़ की नौटंकी की भी हद होती है ।

फ्री बेसिक तो बड़ा सवाल है ही, उससे भी बड़ा सवाल है फेसबुक का तरीका । क्या यह लोकतंत्र और उसकी बनाई संस्थाओं के बेसिक के अनुकूल है ? आप कहेंगे कि क्या फ़र्क पड़ता है । जब तक मिलता है ले लो । तो आपने तय कर लिया है कि अब से किसी बात के लिए किसी पत्रकार को फोन नहीं करेंगे ? हमेशा डिबेट ही देखेंगे ? आपको मेरी शुभकामनाएँ ।

(रवीश कुमार जी के ब्लॉग कस्बा से साभार)

Go Back

Comment

नवीनतम ---

View older posts »

पत्रिकाएँ--

175;250;e3113b18b05a1fcb91e81e1ded090b93f24b6abe175;250;cb150097774dfc51c84ab58ee179d7f15df4c524175;250;a6c926dbf8b18aa0e044d0470600e721879f830e175;250;13a1eb9e9492d0c85ecaa22a533a017b03a811f7175;250;2d0bd5e702ba5fbd6cf93c3bb31af4496b739c98175;250;5524ae0861b21601695565e291fc9a46a5aa01a6175;250;3f5d4c2c26b49398cdc34f19140db988cef92c8b175;250;53d28ccf11a5f2258dec2770c24682261b39a58a175;250;d01a50798db92480eb660ab52fc97aeff55267d1175;250;e3ef6eb4ddc24e5736d235ecbd68e454b88d5835175;250;cff38901a92ab320d4e4d127646582daa6fece06175;250;25130fee77cc6a7d68ab2492a99ed430fdff47b0175;250;7e84be03d3977911d181e8b790a80e12e21ad58a175;250;c1ebe705c563d9355a96600af90f2e1cfdf6376b175;250;911552ca3470227404da93505e63ae3c95dd56dc175;250;752583747c426bd51be54809f98c69c3528f1038175;250;ed9c8dbad8ad7c9fe8d008636b633855ff50ea2c175;250;969799be449e2055f65c603896fb29f738656784175;250;1447481c47e48a70f350800c31fe70afa2064f36175;250;8f97282f7496d06983b1c3d7797207a8ccdd8b32175;250;3c7d93bd3e7e8cda784687a58432fadb638ea913175;250;0e451815591ddc160d4393274b2230309d15a30d175;250;ff955d24bb4dbc41f6dd219dff216082120fe5f0175;250;028e71a59fee3b0ded62867ae56ab899c41bd974

पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना