संजय रावत की मजदूर दिवस पर लिखी गई एक कविता, जो सर्वकालिक है
सलाम सम्पादक !
तुम ज्ञानी हो, वाचक हो, अंर्तयामी, युगदृष्टा और पथप्रदर्शक भी.
तुम्हारे संपादन से जायज, नाजायज और प्रजातंत्र परिभाषित होते हैं.
तुम दुनिया देखने का बेहतर नजरिया पेश करते हो.
लेकिन, हमारी संकुचित जुबान और फैले हुये कान बहुत कुछ वह देख लेते हैं.
जिसे तुम सम्पादित करने से हमेशा बचते हो
क्या तुम नहीं जानते...
कि हमारे बच्चों की आंखों के बीच पड़े स्याह गड्ढे
तुम्हारे बच्चों के गालों में सुर्खियां भरते हैं!
क्या तुम नहीं महसूसते...
कि एक अखबार से खड़े तुम्हारे सैंकड़ों कारोबारों से
हमारे पसीने की बू आती है!
दरअसल,
तुम ‘अर्थशास्त्र’ को विज्ञान और अपनी आस्थाओं को ‘दर्शन’ समझने लगे हो.
तुम देखना नहीं चाहते!
जिन सीढ़ियों को लांघकर तुम शिखर तक पहुंचने की जुगत में हो.
वे हमारे कन्धों में गहरी धंस चुकी हैं.
लेकिन याद रखो सम्पादक...
पहाड़ पर रहने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि
शिखर के बाद ढलान शुरू होती है....
तो संभलो सम्पादक, आगे ढलान है!
संजय रावत /
हल्द्वानी (नैनीताल)
09758625095