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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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मा. कांशीराम की पत्रकारिता

कांशीराम बहुजन राजनीति के साथ-साथ बहुजन-पत्रकारिता के भी उद्भावक थे
पुस्तक समीक्षा/ कॅंवल भारती
/ किसी भी आन्दोलन या राजनीति को जानने के लिये सबसे अच्छा माध्यम उसके संस्थापक या मुखिया का रचना-कर्म ही होता है। इसके अन्तर्गत उसके द्वारा लिखे गये लेख, जनता के बीच दिये गये भाषण और मीडिया को दिये गये इण्टरव्यूज होते हैं। इस दृष्टि से बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक बहुजन नेता कांशीराम के सम्पादकीय लेखों का यह संग्रह बहुत महत्वपूर्ण है, जिसे ए. आर. अकेला ने संपादित और विजेन्द्र सिंह विक्रम ने अनुवाद किया है। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि कांशीराम बहुजन राजनीति के साथ-साथ बहुजन-पत्रकारिता के भी उद्भावक थे। अस्सी के दशक में कांशीराम जी ने हिन्दी में ‘बहुजन संगठक’ साप्ताहिक और अंग्रेजी में ‘दि आपे्रस्ड इण्डियन’ मासिक पत्रों का प्रकाशन आरम्भ किया था। इन दोनों पत्रों के सम्पादक भी वे स्वयं थे। इन पत्रों में जो सम्पादकीय लेख वे लिखते थे, वे उस समय के राजनैतिक और सामाजिक सवालों पर आधारित होते थे, जिनमें अत्यन्त गम्भीर चर्चा होती थी। वे लेख काफी विचारोत्तेजक होते थे। वे लेख आज राजनीति के शोध छात्रों के लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन वे अंक आज आसानी से सुलभ नहीं हैं। इस समस्या को हल करने का बीड़ा ए. आर. अकेला जी ने उठाया है, जो निस्सन्देह एक बड़ा काम है। वह कांशीराम के साक्षात्कारों का संग्रह पहले ही छाप चुके हैं। अब उन्होंने ‘दि आॅप्रेस्ड इण्डियन’ के सम्पादकीय लेखों का अनुवाद कराकर  उनका संग्रह ‘मा. कांशीराम साहब के संपादकीय लेख’ शीर्षक से प्रकाशित किया है।

इस पुस्तक की भूमिका दद्दू प्रसाद ने लिखी है, जो 1984 में ही कांशीराम के उद्बोधन से प्रभावित होकर उनके भक्त हो गये थे और बाद में जब उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनी, तो वे उसमें कैबिनेट मन्त्री बने। यह पद उसकी अगली सरकारों में भी उन्हें प्राप्त होता रहा। दद्दू प्रसाद ने अपनी भूमिका में कांशीराम की किताब ‘चमचा युग’ का जिक्र किया है, जिसमें पूना-पैक्ट के बाद कॉंग्रेस द्वारा दलितों को अपना बंधुआ मजदूर बनाने वाली राजनीतिक साजिश का पर्दाफाश किया गया है। इतिहास की दृष्टि से यह किताब बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन, हम देखते हैं कि दलित के लिये आज भी वही परिस्थिति है। वह चाहे जिस पार्टी में हो, उसकी हैसियत वहाँ  एक गुलाम से ज्यादा नहीं है।

पुस्तक में कांशीराम के 77 संपादकीय लेख संकलित किये गये हैं। पहला लेख ‘समाचार सेवाओं की आवश्यकता’ पर है, जिसमें कांशीराम ने बहुत सही सवाल उठाया है कि जातिवादी हिन्दू प्रेस दलित और शोषित समाज के समाचारों को ब्लैक आउट करता है। वे इस लेख में लिखते हैं कि इसलिये डा. आंबेडकर ने निजी समाचार सेवा के महत्व को समझ कर 1920 में ‘मूकनायक’, 1927 में ‘बहिष्कृत भारत’, 1930 में ‘जनता’ और 1955 में ‘प्रबुद्ध भारत’ नाम से समाचार पत्र निकाले थे। लेख में ‘दि आपे्रस्ड इण्डियन’ पत्रिका की शुरुआत के सम्बन्ध में लिखा है, ‘आवश्यकता और अवसर दोनों से हमें चुनौती स्वीकार करने की पे्ररणा मिली है तथा समाचार सेवा के क्षेत्र में कूदने की तैयारी है।’ वे अन्त में लिखते हैं, अगले दो सालों में देश के कोने-कोने से समाचार सेवा का विस्तार हो जायगा।’

हालांकि कांशीराम के समय में ही उनके दोनों पत्रों का प्रकाशन बन्द हो गया था, पर यह सच है कि आज देश के कोने-कोने से दलितों और शोषितों के अखबार और पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। अप्रैल 1979 के अंक में उन्होंने आंबेडकरवाद पर प्रकाश डाला है। ‘क्या आंबेडकरवाद पुनर्जीवित तथा दीर्घजीवी होगा?’ शीर्षक लेख में वे लिखते हैं, ‘जो मिशन कभी बाबा साहब के समय में उच्च प्रतिष्ठा को प्राप्त था, वही आज हास्यास्पद स्थिति में नजर आता है।’ इसका कारण वे यह बताते हैं कि जो आरपीआई बाबा साहब ने बनायी थी, वह आठ गु्रपों में बॅंटी हुई है और दलित पैंथर के भी छह गु्रप हैं। वे सवाल उठाते हैं कि इस तरह आंबेडकरवाद कैसे पुनर्जीवित हो सकता है? यह संपादकीय कांशीराम ने तब लिखा था, जब बहुजन समाज पार्टी का निर्माण नहीं हुआ था और वे सिर्फ बामसेफ चलाते थे। इसलिये इस लेख में वे इस बात पर जोर देते हैं कि आंबेडकर के मिशन को पूरा करने की जिम्मेदारी बामसेफ ने ली है।

इसी अंक में एक टिप्पणी कांशीराम ने धर्मान्तरण-विरोधी बिल पर भी की है, जो ओ. पी. त्यागी द्वारा 1979 में संसद में प्रस्तुत किया गया था। इस बिल का मकसद ईसाई मिशनरीज को दलित-आदिवासियों का धर्मान्तरण करने से रोकना था। लेकिन कांशीराम लिखते हैं कि इस बिल का विरोध पहले बौद्धों को करना चाहिए था, क्योंकि उनके अनुसार, ‘बिल उनके हितों के ज्यादा विरुद्ध था बजाय ईसाइयों के, क्योंकि ईसाइयों ने कभी विशाल धर्म-परिवर्तन नहीं किया।’ वे इसका कारण यह बताते हैं कि ‘आंबेडकरवाद की चहुँ ओर असफलता के कारण धर्म-परिवर्तन को भी झटका लगा। यह गतिरोध इतना बड़ा था कि डा. आंबेडकर के कथित अनुयायियों की ओर से त्यागी बिल का कोई विरोध नहीं हुआ।’

जून 1980 के अंक में उनका संपादकीय लेख महाराष्ट्र में आंबेडकर मिशन के पतन पर गहरी चिन्ता प्रकट करता है। वे लिखते हैं, ‘यह दुखद प्रक्रिया उस समय से शुरु हुइ्र्र, जब डा. आंबेडकर के अनुयायियों ने चापलूसी शुरू की, प्रारम्भ में कुनबी-मराठा के कदमों में गिर कर तथा बाद में पूना के ब्राह्मणों के कदमों में गिर कर और अब वे किसी के भी कदमों में गिर सकते हैं, जो उनकी कीमत चुका सके। यह संपादकीय लेख वस्तुतः नामान्तर आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। वे इसमें यह खुलासा करते हैं कि औरंगाबाद से आंबेडकरवादियों का जो लौंगमार्च निकला था, उसका नेतृत्व पूना के ब्राह्मणों के हाथों में था। लेकिन यही कांशीराम जब उत्तर प्रदेश में सत्ता में आये, वे तो स्वयं ब्राह्मणों के आगे नत मस्तक हो गये थे। ‘दि आप्रेस्ड इण्डियन’ के लगभग सभी संपादकीय लेख यद्यपि बामसेफ के कार्यक्रमों, नीतियों और गतिविधियों के सम्बन्ध में ही सूचना देते हैं, पर उनसे यह भी पता चलता है कि वे डा. आंबेडकर के राजनैतिक आन्दोलन से किस तरह अपना साम्य बनाते हुए अपनी भावी राजनीति तय कर रहे थे। सबसे पहले उन्होंने धन की आवश्यकता के लिये आंबेडकर मिशन को आधार बनाया। उन्होंने अप्रैल 1979 के संपादकीय में लिखा-‘40 सालों का लम्बा आन्दोलन जो कई मोरचों पर लड़ा गया, करोड़ों रुपयों की जरूरत रही होगी। डा. आंबेडकर ने आन्दोलन पर अपनी बिना पकड़ ढीली किये तथा आन्दोलन की मिशनरी भावना को बनाये रखते हुए करोड़ों रुपये जुटाये। लेकिन उनके अनुयायी उनसे बहुत कम भी नहीं जुटा पाये तथा इस प्रक्रिया में वे मिशनरी से मर्सेनरी (भाड़े के लोग) बन गये। इस महत्वपूर्ण पहलू को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। इसलिये जो चाहते हैं कि आंबेडकरवाद पुनर्जीवित हो, उनको स्वयं के साधनों से करोड़ों रुपये जुटाने होंगे।’ और सब जानते हैं कि कांशीराम ने अपने आन्दोलन के लिये करोड़ों रुपये जुटाये।

धर्म के प्रति कांशीराम का ज्यादा आग्रह नहीं था। उन्होंने अपने संपादकीय लेख (मई 1981) में लिखा है, ‘हमने यह दृढ़ निश्चय किया है कि बामसेफ को गैर धार्मिक, गैर संघर्षात्मक और गैर राजनीतिक बने रहना है।’ इसी लेख में वे कहते हैं कि धर्म व्यक्तिगत मामला होना चाहिए और सामाजिक तथा धार्मिक मामलों को राजनीति से जोड़ना नहीं चाहिए। यद्यपि कांशीराम ने 1981 में ही ‘बुद्धिस्ट रिसर्च सेंटर’ की स्थापना भी की थी, पर उसका उद्देश्य यह जांच-पड़ताल करना था कि बाबा साहब द्वारा 14 अक्टूबर को बौद्धधर्म की दीक्षा लेने के बाद बौद्धधर्म के आन्दोलन को पुनर्जीवित करने के लिये जो संगठन खड़े हुए, वे असफल क्यों हो गये? लेकिन यह विडम्बना ही है कि बुद्धिस्ट रिसर्च सेंटर ने किसी दिशा में कोई काम नहीं किया और वह सिर्फ एक कागजी संस्था ही बनी रही।

बामसेफ गैर संघर्षात्मक संगठन इसलिये था, क्योंकि वह सरकारी कर्मचारियों का संगठन था। लेकिन संघर्ष के बिना कांशीराम का जमीनी आधार नहीं बन सकता था। इसलिये 1981 में ही उन्होंने ‘दलित शोषित समाज संघर्ष समिति’ (डीएस-4) का गठन किया, जिसका मकसद राजनीतिक संभावनाए तलाश करना भी था। इस विषय में उन्होंने दिसम्बर 1981 के संपादकीय लेख में लिखा, अंगे्रजों के जाने के बाद व्यस्क मताधिकार लागू होने पर मानव गणना शुरु हुई, जिसकी वजह से वर्तमान शासक वर्ग को 85 प्रतिशत दलित-शोषित भारतीयों के पास वोट लेने जाना पड़ा। ये दलाल नेता उनका हमदर्द होने का ढोंग रचते हैं। इन दलालों की असलियत सामने आने से 85 प्रतिशत असहाय जनता में असंतोष है। इसलिये इस लाचार जनता की लड़ाई लड़ने के लिये एक संगठन की आवश्यकता महसूस की गयी।
डीएस-4 का पहला राजनीतिक प्रयोग हरियाणा राज्य में किया गया। इसका खुलासा और आवश्यक विवरण देते हुए वे जून 1982 के संपादकीय में लिखते हैं, ‘हमारे हरियाणा के प्रयोग ने हमें अपने सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने का अवसर प्रदान किया। अब हरियाणा में इस प्रयोग के बाद हम बहुत आशावादी हैं और पक्की तरह से महसूस करते हैं कि डीएस-4 दलित शोषित समाज को 30 जून 1983 से पहले राष्ट्रीय स्तर की पार्टी देने में समर्थ हो सकेगा।’

कांशीराम ने अपने संपादकीय लेखों में इतिहास पर भी चर्चा की है और उसकी वर्तमान स्थिति पर चिन्ता भी व्यक्त की है। जुलाई 1982 के संपादकीय में उन्होंने पश्चिम बंगाल के नमो शूद्रा आन्दोलन पर विचार किया है, जो बीसवीं सदी के आरम्भ में वहाँ  एक जन आन्दोलन बन गया था। वे बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं, भारत में अंगे्रजों के देश छोड़ने से पहले नमो शूद्रा आन्दोलन अपने चरम पर था। यह इतना बड़ा आन्दोलन था कि बंगाल के नमो शूद्रा लोगों ने बाबा साहब आंबेडकर को संविधान सभा में पहुँचाकर पीड़ित और शोषितों के प्रति अपनी पूरी निष्ठा का परिचय दिया था। किन्तु कांशीराम उसकी वर्तमान दशा का भी बहुत सही आकलन करते हैं। वे लिखते हैं, बंगाल के विभाजन ने नमो शूद्रा आन्दोलन को भी विभाजित कर दिया, जिससे आज नमो शूद्रा लोग जड़विहीन हैं। उनकी जड़ें बंगला देश में हैं और शाखाए भारत में हैं। वे सही सवाल उठाते हैं कि अवश्य ही इस विभाजन ने उनका बड़ा नुकसान किया है, पर उसके लिये कब तक रोते रहेंगे? वे स्वयं उत्तर भी देते हैं कि नमो शूद्रा लोगों को अपना आन्दोलन पुनः खड़ा करना चाहिए। यह पूरा अंक नमो शूद्रा लोगों की समस्याओं और उनके आन्दोलन पर केद्रित है, और इसीलिये अत्यन्त महत्वपूर्ण भी है।

24 सितम्बर 1932 को दलितों के राजनैतिक अधिकारों के सवाल पर गांधी और डा. आंबेडकर के बीच पूना की यरवदा जेल में एक ऐतिहासिक समझौता हुआ था, जो ‘पूना-पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है। 24 सितम्बर 1982 को इसके 50 साल पूरे होने पर कांशीराम और उनके संगठनों ने इस दिवस को ‘धिक्कार-दिवस’ के रूप में मनाया और पूरे महीने ‘धिक्कार-सम्मेलन’ आयोजित किये। इस विषय में उन्होंने सितम्बर 1982 के अंक में अपने संपादकीय में विस्तार से प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं, जो लोग पूना पैक्ट के शिकार हुए, उनसे खुशी मनाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। वे सवाल करते हैं, तब उनको क्या करना चाहिए? वे इसका जवाब भी देते हैं, ‘यदि वे कमजोर और लाचार हैं तो उनको अपने सिर को झुकाकर मुँह  बन्द रखना चाहिए। यदि नहीं, तो उनको उठ खड़ा होना चाहिए और इतने समय के बाद भी इसके विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए।’ पूना पैक्ट का धिक्कार क्यों? इसके जवाब में वे डा. आंबेडकर का हवाला देते हुए कहते हैं कि इस पैक्ट में दलितों को जातिवादी हिन्दुओं की दया पर रहने के लिये सहमत कराया गया था। फिर आगे जोड़ते हैं, जब डा. आंबेडकर दलितों को सदियों पुराने अंधेरे युग से निकाल कर उजाले के युग की ओर ले जा रहे थे, तो उनकी सारी कोशिशो को दरकिनार करते हुए उन्हें चमचा युग की ओर धकेल दिया गया। यहाँ  कांशीराम कॉंग्रेस पर निशाना साधते हैं। वे उन कॉंग्रेसी दलित नेताओं की बात करते हैं, जो हिन्दू वोटों से जीत कर हिन्दुओं के चमचा बनकर रहते हैं। यह उनका राजनैतिक एजेण्डा था, क्योंकि यहीं से उनकी भावी राजनीति का रास्ता भी निकलता था।

अक्टूबर 1982 के अंक में कांशीराम ने महाराष्ट्र के दलित पैंथर की आलोचना की है और उन्हें ‘पुरुष वेश्या’ कहा है। उनकी सूचना चैंका देने वाली है। वे लिखते हैं, ‘पूना में मुझे यह देखकर सदमा लगा कि महाराष्ट्र में दलित पैंथर्स आन्दोलन के विफल होने के बाद इनमें से कुछ ने कच्ची शराबखोरी शुरु कर दी है, जुए और सट्टे के अड्डे लगाने शुरु कर दिये हैं।’ यहाँ  तक कि उन्होंने ‘वेश्याओं की दलाली और गैर वेश्यावृत्ति वाले इलाकों में पुलिस को हफ्ता देकर औरतें भिजवाना शुरु कर दिया है। इस प्रकार वे पूरी तरह पुलिस की गिरफ्त में हैं। अब यह समाज की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे पैंथर्स से कैसे निपटे? यहाँ  तक मेरा सवाल है, मेरा यह कहना है कि ऐसे पुरुष वेश्याओं से सावधान, जो स्वयं को दलित पैंथर्स कहते हैं।’ दलित पैंथर पर उनकी यह कटु टिप्पणी बताती है कि महाराष्ट्र में दलित पैंथर कांशीराम के मार्ग में एक बड़ी बाधा बन गया था।

भारत के संसदीय लोकतन्त्र पर भी कांशीराम का चिन्तन विचारणीय है। दिसम्बर 1982 के अंक में उन्होंने एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है कि क्या भारत की संसद प्रतिनिधि संस्था है? वे लिखते हैं कि ‘4 से 5 प्रतिशत जनसंख्या वाले ब्राह्मण समाज ने 30 प्रतिशत से ज्यादा सांसद बनाकर राष्ट्रीय संसद पर अपना शिकंजा कस लिया है।’ इस तरह यह सही मायने में प्रतिनिधि संस्था नहीं है। इस विषय पर उनका यह पूरा लेख पठनीय है।

मार्च 1983 के अंक में कांशीराम बाबू जगजीवन राम के बारे में लिखते हैं कि चुनाव लड़ने के सिवा उनका कोई दूसरा उद्देश्य नहीं है, तो अगस्त 1983 के अंक में दलित-शोषित भारतीयों के लिये स्वतन्त्रता दिवस की सार्थकता पर प्रकाश डालते हैं। इसमें वे लिखते हैं-‘वे कहते हैं, हम आजाद हैं। लेकिन वास्तव में कौन लोग आजाद हैं? पूंजीवादी, साम्प्रदायिकतावादी और सामन्तवादी अपनी इच्छाओं को दलित एवं शोषित लोगों पर थोपने के लिये आजाद हैं।’ नवम्बर 1983 के अंक में वे पिछड़े वर्ग के लोगों में राजनैतिक चेतना उभारते हैं।

कांशीराम ने 6 दिसम्बर 1983 से साइकिल मार्च और जन सभाओं के माध्यम से सामाजिक कार्यवाही यात्रा शुरु की थी, जो कन्याकुमारी, कारगिल, कोहिमा, पुरी और पोरबन्दर से आरम्भ होकर 15 मार्च 1984 को बोट क्लब, दिल्ली में एक विशाल रैली में सम्पन्न हुई थी। मार्च और अप्रैल 1984 के अंकों में कांशीराम ने इस पर विशेष संपादकीय लिखे हैं, जो उनके राजनैतिक विकास को समझने में मदद करते हैं। इस यात्रा के बाद ही कांशीराम ने 14 अप्रैल 1984 को ‘बहुजन समाज पार्टी’ का निर्माण किया। और अगले पाँच  महीने तक ‘दि आॅपे्रस्ड इण्डियन’ का प्रकाशन बन्द रहा। अक्टूबर 1984 के अंक में कांशीराम ने इस पर ‘हम क्षमा प्रार्थी हैं’ शीर्षक से संपादकीय लिखा है, जिसमें वे अब तक की सामाजिक गतिविधियों का लेखा-जोखा भी प्रस्तुत करते हैं। इसके बाद जून 86 तक के संपादकीय लेख पुस्तक में मिलते हैं, जिसे उसका अन्तिम अंक माना जा सकता है। इनमें एक लेख में कांशीराम ने अपनी इंग्लैंड यात्रा का वर्णन किया है, जो जुलाई 1985 के अंक में है। इंग्लैंड में कांशीराम को किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, उसका बहुत ही बेबाक वर्णन इस लेख में मिलता है। कांशीराम के समय और उनकी सामाजिक-राजनैतिक गतिविधियों को जानने के लिये ही नहीं, बल्कि उनकी पत्रकारिता से परिचित होने के लिये भी उनके संपादकीय लेखों का यह संग्रह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की हैसियत रखता है, जो पठनीय और संग्रहणीय है।

पुस्तक - मा. कांशीराम साहब के संपादकीय लेख
अनुवादक - विजेन्द्र सिंह विक्रम
संपादक - ए. आर. अकेला
प्रकाशक - आनन्द साहित्य सदन, सिद्धार्थ मार्ग, अलीगढ़त्र उ. प्र.
मूल्य - 300 रुपये







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डॉ. लीना