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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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'मादा” पर परिचर्चा

मुंबई की कथाकार सुमन सारस्वत की कहानियों ने मचाई दिल्ली में धूम
मुंबई की कहानीकार सुमन सारस्वत के कहानी संग्रह मादा की अनुगूंज देश की राजधानी दिल्ली में सुनाई दी। यहां के साहित्यिक हलकों में सुमन की रचनाओं को लेकर उत्सुकता और तारीफें सुनने को मिलीं। सभी ने एक स्वर से कहा कि सुमन की कहानियां परंपरागत सोच को तोड़ते हुए की-विमर्श के नए क्षितिज खोलती हैं।

पिछले दिनों हिंदी भवन, नई दिल्ली में शिल्पायन एवं सम्यकन्यास के संयुक्त तत्वावधान में मुंबई की कथाकार सुमन सारस्वत के कहानी-संग्रह “मादा” पर एक परिचर्चा गोष्ठी का आयोजन किया गया था। इस आयोजन में राजधानी के साहित्य जगत के नामचीन लोगों ने शिरकत तो की ही, मुंबई और कुरुक्षेत्र के साहित्यकार भी मौजूद थे। सभी ने सुमन की कहानियों पर खुलकर चर्चा की और अपने विचार प्रतिपादित किए। दिल्ली में सुमन सारस्वत की 'मादा” के माध्यम से स्त्री-विमर्श पर मौलिक और नई दिशा पर चर्चा हुई।
गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार व हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने की जबकि वरिष्ठ पत्रकार व जनसत्ता के संपादक ओम थानवी मुख्य अतिथि थे। वरिष्ठ आलोचक अर्चना वर्मा, वरिष्ठ पत्रकार राहुलदेव एवँ सतीश पेडणेकर, इंडिया टुडे की फीचर एडीटर मनीषा पांडेय और युवा कथाकार विवेक शिश्र ने इस परिचर्चा में भाग लिया।
राजेंद्र यादव ने सुमन सारस्वत की कहानियों पर बोलते हुए कहा कि सुमन के पास अपने अनुभवों के साथ एक विश्वसनीय भाषा और एक पत्रकार की संपादन-शक्ति है। की जब अपनी रचना के जरिए संवाद करती है तो वह कहीं न कहीं खुद को मुक्त करती है। ऐसी रचनाओं को स्त्री मुक्ति की श्रेणी में डालना उचित है। साहित्य में हमेशा से एक खास तबके के लेखन पर 'स्त्री-विमर्श” का ठप्पा लगता रहा है। इसे पश्चिम से आयातीत विचारधारा के तौर पर भी देखा जाता है। लेकिन इस सबसे परे हटकर लेखक की रचना प्रमुख और अहम होती है। सुमन की कहानियों में 'स्त्री-विमर्श” को लेकर लिखी गई कहानियों का दोहराव नहीं मिलता। वे निर्भीक होकर लिखती है, बिना किसी लाग-लपेट के। उनके लेखन से तमाम पुराने मूल्यों की कलई उतरती है।
इस अवसर पर वरिष्ठ आलोचक अर्चना वर्मा ने मुखर होकर कहा कि स्त्री मुक्ति की बात करना कोई अपराध नहीं है। स्त्री-विमर्श से जुडऩे में परहेज और संकोच की कतई जरूरत नहीं है। एक महिला का लेखन स्त्री-विमर्श से अछूता रह ही नहीं सकता। उन्होंने अफसोस जाहिर करते हुए कहा कि मौजूदा सामाजिक ढांचे में स्त्रिया जब अपनी पीड़ा, दुख और दर्द सुनाती है तो वह पुरूष को नागवार गुजरता है। उन्होंने सुमन की 'मादा” और 'तिलचट्टा” कहानी को की-लेखन में मील का पत्थर बताया। उन्होंने सुमन को शुभकामनाएं दी कि वे आगे इसी तरह बेबाकी से लिखती रहे।
वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने कहा कि काम के आधार पर किसी का मूल्यांकन उसकी वैचारिक, जातिगत और राजनीतिक पक्षधरता से अधिक महत्वपूर्ण है। उन्होंने लेखिका की भाषा और शिल्प की तारीफ करते हुए कहा कि कहानी लिखने की शैली प्रभावित करने वाली है। सभी कहानियां ईमानदारी से लिखी गई हैं। वाक्य छोटे-छोटे एवं प्रभावशाली हैं।  सतीश पेडणेकर के अनुसार इन कहानियों में पठनीयता है और इनमें अनावश्यक झोल नहीं है। हिंदी लेखक को अपने चारों ओर बने हुए घेरे को तोडऩा चाहिए जो सुमन के लेखन में दिखाई देता है।
वरिष्ठ पत्रकार सतीश पेडणेकर ने जनसत्ता-मुंबई से जुड़े अपने और सुमन के संस्मरणों पर प्रकाश डाला। सुमन की रचना-प्रक्रि या पर चर्चा करते हुए कहा कि पत्रकारिता के दौरान ही उन्हें सुमन की साहित्यिक प्रतिभा का अंदाजा लग गया थ। मादा की कहानियों में पठनीयता है और उसमें अनावश्यक झोल नहीं है। इनमें मुंबई के परिवेश का चित्रण बखूबी दिखता है।
प्रो. वंदना दुबे ने अपने वक्तव्य में कहा कि सुमन की कहानियां चकित करती हैं। उनकी कहानियों में स्त्री सिर्फ मादा नहीं है वह खुद को एक इंसान के रूप में गढ़ती है। लेखिका ने वैश्वीकरण और बाजारवाद से उपजी समस्याओं को बड़ी गंभीरता से रेखांकित किया है। मनीषा पांडेय ने कहानियों में वर्णित परंपराओं के अंतरविरोध का जिक्र करते हुए पीढ़़ीगत सोच को रेखांकित किया है।
दिल्ली के जाने-माने युवा कहानीकार विवेक मिश्र ने कार्यक्रम के संचालन के दौरान बताया कि मादा में कुल बारह कहानियां हैं जो स्त्री लेखन के पूर्व निर्मित ढांचे और घेरे को तोड़ती है। समकालीन युवा लेखन के परिदृश्य में सुमन की कहानियां एक नई संभावनाओं की ओर इशारा करती है। उनके पास अनुभवों का एक बृहत्त संसार है। जिसे वह अपनी कहानियों मे कुशलतापूर्वक दृश्यमान करती हैं। वे अपनी कहानियों में सहज ही की जीवन से जुड़े कई सवाल उठाती हैं इसलिए कई मायनों में वह अपने समकालीन लेखिकाओं से अलग खड़ी दिखाई देती हैं।
वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने सम्यक न्यास की ओर से आभार जताया और कहा कि इस कार्यक्रम के जरिए मुंबई की युवा लेखिका का दिल्ली के साहित्य-जगत से परिचय होना महत्वपूर्ण है। उन्होंने बताया की वे जनसत्ता से सुमन को जानते हैं। मादा की कहानियों में सुमन ने अपने पत्रकारीय कौशल से बड़े साहस के साथ मुखर होकर अपनी बात कही है।
चर्चा गोष्ठी का आरंभ शिल्पायन प्रकाशन के ललित शर्मा ने किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा, 'जब मैंने सुमन सारस्वत की कहानियों की पांडुलिपि पढ़ी तो मुझे लगा की इन्हेंं अवश्य प्रकाश में आना चाहिए क्योंकि ये कहानियां की लेखन से अलग, की-विमर्श को मुखर और नया आयाम देती रचनाएं हैं।
सुमन सारस्वत ने अपने वक्तव्य में दिल्ली वालों का आभार माना कि उन्होंने अपने शहर से बाहर की एक लेखिका को इतना स्नेह, सम्मान और सहयोग दिया. इस अवसर पर उन्होंने अपनी रचना-प्रक्रिया, मन:स्थिति और अनुभवों को साजा किया। उन्होंने कहा, 'ये कहानियां स्त्री पर केंद्रित है। मैं अपने-आपको एक इंसान मानती हूं। मगर एक स्त्री के शरीर में अपना जीवन जी रही हूं। एक औरत जब 'मादा” के खोल से बाहर निकलती है तो कहानी बनती है। जब वह एक 'इंसान” के रूप में खुद को गढ़ती है तो कहानी बनती है...।”
इस आयोजन में वरिष्ठ आलोचक भारत भारद्वाज, श्याम कश्यप, संगम पांडेय मल्लिका राहुल देव, कुमार प्रशांत, अमिताभ श्रीवास्तव, अमृता बेरा, मजकूर आलम, डा. महासिंह पूनिया, कुमार प्रशांत, वंदना दुबे, कुमुद श्रीवास्तव, पीयूष वाजपेयी, भरत तिवारी,ज्योति कुमारी, कुमार अनुपम, प्रेमचंद सहजवाला, सविता दुबे, रूपा सिंह, राहुल पांडेय, निखिल आनंद गिरी आदि उपस्थित थे।

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सम्पादक

डॉ. लीना