वे एक अंग्रेजी अख़बार की फ्रेंचाइज़ी ले आए और वो अख़बार खुद छाप के खुद ही पढ़ते रहे
जगमोहन फुटेला /सुना है केडी सिंह के अंदर कोई पंजाबी जाग गया है और ये ग़लतफ़हमी भी कि हरियाणा के पंजाबी उन्हें मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं।
कभी शिबु सोरेन के चरण छू कर सांसद बने और फिर 'गुरु' जी से ज़्यादा ममता बनर्जी को खुश कर टीएमसी के कोटे से राज्यसभा में सांसद हो गए केडी सिंह की राजनीति, उस की समझ और प्लानिंग देखिए। मुख्यमंत्री हो सकने के लिए वे 50 पंजाबियों को 90 सदस्यों वाली विधानसभा का चुनाव लड़ाना चाहते हैं। ये तो खैर उन्हें पता ही नहीं होगा कि हरियाणा के अब तक इतिहास में कभी एक दर्जन से अधिक पंजाबी जीते नहीं है और मुख्यमंत्री तो कभी कोई एक दिन के लिए भी नहीं हुआ।
लेकिन इस को भी छोड़िए। किसी सियासी समझ की उम्मीद आप उस से करें सियासत जिस का फुल टाइम पेशा हो। सियासत जिस के लिए सिर्फ टाइम पास हो या अपने साम्राज्य को बचाने का भीड़ बटोरू टोटका तो उस से आप वैसी ही नौटंकी की उम्मीद आप कर सकते हैं जैसी केडी कर रहे हैं। जिन पंजाबियों की राजनीति वे अब कर रहे हैं उन पंजाबियों की पीठ में कैसे छुरा घोंपा उन्होंने ये भी बताएंगे। लेकिन पहले हरियाणा में उन की सक्रियता की सच्चाई समझ लीजिए।
वे मूल रूप से अलकेमिस्ट नाम से अस्पताल चलाते हैं। दिमाग में एक दिन कीड़ा घुसा। वे एक अंग्रेजी अख़बार की फ्रेंचाइज़ी ले आए और वो अख़बार खुद छाप के खुद ही पढ़ते रहे। अस्पताल एक से बढ़ के दो और फिर तीन होते रहे तो राजनीति का कीड़ा कुलबुलाया। उन्हें पता लगा कि झारखंड मुक्ति मोर्चा की कृपा से भी एकाध आदमी राज्यसभा का सदस्य बन जाता है तो वे शिबु सोरेन से मिले। शायद याद हो आप को शिबु सोरेन से मिले एक बार भजनलाल भी थे और उन्होंने नरसिम्हा राव की सरकार बचा ली थी। शिबू सोरेन के लिए भी राजनीति अपना विकास करने से अधिक कुछ नहीं रही। वे पकड़े भी गए और जेल में भी रहे। लेकिन केडी की बला से। केडी उन से मिले। उनको 'विकास' दिखाया और राज्यसभा के सदस्य हो गए। जब उन्हें लगा कि बंगाल में 'विकास' की संभावनाएं बहुत ज्यादा हैं तो वे ममता बनर्जी के आगे पीछे डोलने लगे। सिंगूर में टाटा का विरोध कर के उद्योगपतियों में अलोकप्रिय हो चुकी ममता को बंगाल में अपने जीवन का सब से महत्वपूर्ण चुनाव लड़ना था। केडी का 'विकास' कुछ काम आ गया। वे राज्यसभा में गुरु जी की बजाय दीदी के सांसद हो गए। कांग्रेस के साथ दीदी की खटपट हुई तो केडी ने उन्हें एक ख़्वाब दिखाया। कहा कि तृणमूल कांग्रेस को हरियाणा, पंजाब, हिमाचल में जमाएंगे। दीदी ने उन्हें उत्तरी राज्यों का प्रभारी बना दिया।
उन के प्रभारी बनने के बाद पहला चुनाव टीएमसी ने हिमाचल में लड़ा। 68 सीटों वाली विधानसभा के लिए दो दर्जन उम्मीदवार खड़े किए केडी ने, पता नहीं पैसे दे कर या ले कर। लेकिन नतीजा आया तो पता लगा कि ज़मानत तक किसी की नहीं बची। जिस चुनाव को उत्तर भारत में अपना पहला पैर गाड़ने के नज़रिए से लड़ रही थी तृणमूल कांग्रेस उस का सब से निराशाजनक पहलू ये था कि हिमाचल के एक छोड़ो, आधे फीसदी लोगों ने भी उसे वोट नहीं दिए।
चुनाव से पहले ही लग रहा था कि हिमाचल में स्पष्ट बहुमत किसी को भी मिल नहीं सकेगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल से निकाले राजा वीरभद्र को कांग्रेस ने हिमाचल की कमान दोबारा दे न दी होती तो कांग्रेस जोड़ तोड़ कर के भी सरकार बना नहीं पाती। हिमाचल के साथ ही हो रहे गुजरात के चुनावों, कांग्रेस की नीचे ऊपर अटकी सांस और ऐसी अनिश्चितता के माहौल में केडी ने ममता को कम से कम दस सीटें जीत लेने का भरोसा दिलाया था। दस नहीं पांच विधायक भी अगर टीएमसी ले गई होती तो निश्चित है कि कि हिमाचल में कांग्रेस की सरकार उस की मदद के बिना नहीं बन सकती थी। ये अगर हो जाता तो ममता के चरण पकड़ के वापिस लाती कांग्रेस उन को यूपीए में। रेल मंत्रालय भी वापिस मिलता और बीता हुआ गौरव भी। लेकिन हिमाचल के नतीजे आए तो ममता के सारे अरमां बंगाल की खाड़ी में बह गए। कोलकाता में पत्रकार मित्रों से मिली जानकारी के मुताबिक हालत ये है कि ममता ने केडी सिंह को फासले पे रखना शुरू कर दिया है। उस लिहाज़ से हरियाणा अब उन के लिए न सिर्फ टीएमसी बल्कि राजनीति में ही बने रहने के लिए जीवन मरण का प्रश्न हो गया है। राजनीति उन्हें अब सुरक्षा कवच के रूप में भी चाहिए। वो इस लिए कि जिस हिमाचल में वो कांग्रेस को उस की औकात बताने गए थे वही कांग्रेस अब उन के पीछे हाथ धो के पड़ी है। ममता ने पल्ला झाड़ लिया है और अपना मीडिया खड़ा कर के कांग्रेस को धमकाने की उन की कोशिश भी उलटी पड़ने लगी है। कैसे?... बताएंगे आप को...कल.... ।