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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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अफवाहों को सच जैसा दिखाते सोशल मीडिया

डॉ अबरार मुल्तानी/ ‘‘सच और झूठ में ज़्यादा फर्क नहीं है, बारबार बोला गया झूठ सच लगने लगता है’’ – एडोल्फ हिटलर. .. हिटलर का यह विश्वविख्यात कथन मनोविज्ञान की दृष्टि से 100 प्रतिशत सत्य है। मनुष्य का मस्तिष्क इसी तरह प्रोग्राम्ड है कि यह बार-बार जो देखता और सुनता है उसे सच मानने लगता है। अच्छा बताइये हममें से कितनों ने भूतों को देखा है …. किसी ने नहीं। लेकिन हम अंधेरे में उनसे क्यों डरते हैं ? क्योंकि बचपन से इनकी कहानियाँ और किससे सुनते-सुनते हमारा मस्तिष्क उसके अस्तित्व को स्वीकारने लगा है और कोई भी ऐसी डरावनी स्थिति में हम उनकी काल्पनिक उपस्थिति को महसूस करके उनसे डरने लगते हैं।

हिटलर की आत्मकथा ‘माइन काम्पफ’ पढ़ने से पहले मैं उसे एक ‘मुर्ख  तानाशाह’ मानता था क्योंकि मैंने ऐसा ही सुना था, लेकिन पुस्तक पढ़ने के बाद मेरी हिटलर के प्रति धारणा बदली, अब मैं हिटलर को एक ‘बुद्धिमान तानाशाह’ मानता हूँ। जिसमें भीड़  को उकसाने और नियंत्रित करने के मनोविज्ञान का अद्भुत ज्ञान था। वह जानता था कि भीड़ का मस्तिष्क नहीं होता, वह जानता था कि अफवाहों  से कैसे लाभ उठाया जाये, वह जानता था कि अफवाहों को कैसे सच प्रमाणित कर दिया जाय। इस काम में उसके मंत्री ‘जोसेफ गोएबल्स’ ने हिटलर का काम बहुत आसान कर दिया।

गोएबल्स के प्रोपेगेंडा मूल उद्देश्य आम लोगों में हिटलर के प्रति स्वामीभक्ति  भावना पैदा करना और यहूदियों को जर्मन राष्ट्र के घोर ‘दुश्मन’ के रूप में पेश करना था। इनमें आधारहीन तथ्यों या अफवाहों का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाता था। यहूदियोें को दुश्मन के रूप में लक्षित करने से गोएबल्स का प्रोपेगेंडा  आर्श्चजनक ढंग से सफल साबित हुआ था।

हिटलर मानता था कि आम लोग मानवीय बच्चों की अनिश्चय ग्रस्त भीड़ की तरह होते हैं, उनके लिए संतुलित तर्क कर पाना असंभव होता है। उनकी भावना महज दोधारी होती है यानी वे सिर्फ प्रेम और घृणा, अच्छे और बुरे, सत्य और असत्य के बीच झूलते रहते हैं। हिटलर के हिसाब से प्रोपगंडा का काम आम लोगों को अति सरलीकृत विचारों से संतृप्त करना है, न कि सत्य की खोज करना। हिटलर के ‘एनलाइटेनमेन्ट ऐंड प्रोपगंडा’ के मंत्री जोसेफ गोएबल्स का तूफानी प्रोपेगंडा कैम्पेन हिटलर के इन्हीं विचारों पर आधारित था। यह भी समय का अद्भुत संयोग है कि जर्मनी में हाल ही में यह बिल पास हुआ है कि यदि सोशल मीडिया साइट ने नफरत फैलाने वाली पोस्ट को 24 घंटे में अपनी साइट से नही हटाया तो उसपर 50 मिलियन यूरो का जुर्माना लगाया जाएगा।

क्योर वायोलेंस क्लीनिक के संस्थापक डॉ. गैरी स्लटकिन कहते हैं, हिंसा और हिंसक भाषण बीमारी के समान हैं। हिंसा और उत्तेजना वायरस की तरह फैलते हैं। इसलिए यदि उग्र भाषण को एक दायरे में स्वीकार कर लिया जाए तो वह दूसरे क्षेत्रों में फैलता है। अवांछनीय सामाजिक तौर-तरीके अधिक व्यापक हो रहे हैं। जो लोग मानसिक

रूप से अस्थिर हैं या अपरिपक्व हैं, वे हिंसा का सहारा लेते हैं। ऐसी हिंसा उस व्यक्ति या संस्था के खिलाफ होती है जिन्हें वे नापसंद करते हैं। स्लटकिन जैसे विशेषज्ञ बताते हैं, उनके पास ऐसी तकनीक है जो हिंसा भड़काने वाली घटनाओं या नकारात्मक भाषण को पहचानकर उन्हें रोक सकती है। खास विचारधारा के ग्रुप का प्रभावशाली व्यक्ति

किसी विपत्ति के समय ऑनलाइन सहायता जुटा सकता है या इंटरनेट के किसी कोने को भीड़ में बदल सकता है। इस मोड़ पर लीडर शालीनता और मर्यादा का भाव पैदा कर सकते हैं।

बीहांग यूनिवर्सिटी, बीजिंग के शोधकर्ता ने सात करोड़ से अधिक पोस्ट में चार बुनियादी भावनाएं पाई है। इनमें दुख, आनंद जैसी अन्य भावनाओं की तुलना में गुस्सा अधिक प्रभावशाली है। वह अधिक तेजी से व्यापक तौर पर फैलता है। यह एक शारीरिक और मानसिक क्रिया है। क्रोध से एड्रीनेलिन का विस्फोट होता है और हमारे नर्वस सिस्टम में लड़ने की प्रतिक्रिया होती है। इससे तनाव और बेचैनी बढ़ाने वाले हार्मोन पैदा होते हैं। हम अगली बार और अधिक उत्तेजित हो जाते हैं।

मैंने देखा कि एक राष्ट्रीय राजनीति पार्टी की हरियाणा नेत्री ने एक पोस्ट अपनी फेसबुक वाल पर पोस्ट की जिसमें उन्होंने एक भोजपुरी फिल्म का एक फोटो जिसमें विलेन एक महिला को साड़ी खिंच रहा था और लोग खुश हो रहे थे। इस पोस्टर को उन्होंने पश्चिम बंगाल के दंगों की बताई थी।

फेसबुक ने माना है कि 83 मिलियम फेसबुक युजर्स र्जी है। वही ट्वीटर ने अधिकारिक रूप से स्वीकार किया है कि उसके 23 मिलियन युजर्स फर्जी है। आप अंदाजा लगा सकते है कि कितने फैंक अकांउट्स हैं जो कभी देश दुनिया को सुलगा सकते हैं।

आईटी एक्ट 2000 की धारा 66-ए के तहत डिजिटल वर्ल्ड में अफवाह, अवमानना, घृणा एवं द्वेषपूर्ण संवाद की आपराधिकता के कानूनी प्रावधान को सुप्रीम कोर्ट ने दो वर्ष पहले निरस्त कर दिया था। इसके बावजूद गलत सूचना के माध्यम से अपवाह फैलाकर ठगी, डर, घबराहट, विग्रह या द्वेष पैदा करना भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के विभिन्न प्रावधानों के तहत अभी भी अपराध है। अफवाहों को संगठित गिरोहों द्वारा सोशल मीडिया के गुमनाम या फर्जी यूजर्स के माध्यम से फैलाया जाता है। यूज़र्स के सत्यापन के लिए सोशल मीडिया कंपनियों के अपने बनाए नियमों का पालन नहीं होता, जिस कारण 30 फीसदी से अधिक फर्जी या गुमनाम यूजर्स सायबर जगत को दागदार कर रहे हैं। अफवाहों और फर्जी अकाउंटों के दम पर सोशल मीडिया कंपनियां कई लाख करोड़ रूपये का कारोबार कर रही हैं ।

आईटी इंटरमीडियरी रूल्स 2011 के तहत आईएसपी को इंटरमीडियरी का कानूनी दर्जा मिला है, जिसके तहत दिल्ली हाईकोर्ट ने 2013 में सरकार को आदेश दिया था कि वह सभी इंटरनेट कंपनियों में शिकायत अधिकारी की नियुक्ति तय करे। इन कंपनियों के नियमों में

आपत्तिजनक कंटेंट विधिवत परिभाषित है जिसे भारतीय कानून के तहत 36 घंटे में हटाने का प्रावधान है पर इंटरनेट की आजादी के नाम पर इन नियमों का सही अर्थों में आज तक पालन नहीं हुआ। फेसबुक या ट्विटर में फर्जी अकाउंट खोलना बहुत सरल है लेकिन उन्हें बंद कराना पेचीदा काम है और यह ऐसा ही जैसे कि रेगिस्तान की रेत में से ऊंट के नाखून को ढूंढना।

इंटरनेट देश की सीमाओं से मुक्त होने की वजह से सोशल मीडिया को कानून के दायरे में लाना मुश्किल है, उसके बावजूद चीन जैसे देशों ने इसके नियमन के लिए सख्त कानून बना रखे हैं। भारत के चुनावों में सोशल मीडिया के इस्तेमाल को रोकने के लिए चुनाव आयोग के अक्टूबर 2013 में जारी आचार संहिता का सही अनुपालन नहीं होने से, पार्टी या नेताओं द्वारा अफवाह फैला कर वोटों के ध्रुवीकरण किया जा रहा  है। गाँधी जी, पंडित नेहरू, रवींद्रनाथ टैगोर के बारे में इंटरनेट पर कई भ्रमित करने वाली जानकारियां हैं जिसपर कोई कार्यवाही नहीं की गई है। अफवाहों में वर्तमान के साथ साथ इतिहास को भी बदला जा रहा है। अफवाहों की पोस्ट की हेडिंग बहुत आकर्षक बनाई जाती है अपने पाठकों या दर्शकों की रुचि के अनुसार जिस कारण उसे बहुत से लोग देखते हैं या हीट करते हैं और इस कारण वह सर्चिंग में टॉप पर आने लगती हैं और अफवाहों को इससे और बल दिन ब दिन मिलता जाता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत सोशल मीडिया द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी का हक हासिल करने के लिए यूजर्स और मीडिया कंपनियों को जवाबदेही  का पालन तय करना ही होगा।

पुनश्च; सोशल मीडिया पर एक फोटो अक्सर देखा जाता है जिसमें अब्राहम लिंकन के फोटो के साथ उनका वक्तव्य है कि ” सोशल मीडिया पर प्रकाशित हर चीज सच्ची नहीं होती।” हम बीना सोचे उसे लाइक करके आगे बढ़ जाते हैं जबकि अब्राहम लिंकन के समय सोशल मीडिया था ही नहीं… हम ऐसे ही हर पोस्ट पर थोडे विवेक का प्रयोग करें और अफवाहों से खुद को और दुसरों को बचाएं। सच्चाई को जानने का प्रयास करें… क्योंकि सच का कोई विकल्प नहीं है, अगर हम प्रयास नहीं करेंगे तो भविष्य में सिर्फ झूठ ही झूठ का बोलबाला होगा।

(डॉ अबरार मुल्तानी के फेसबुक वाल से साभार )

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सम्पादक

डॉ. लीना