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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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प्रेस की आज़ादी पर 300 अमरीकी अख़बारों के संपादकीय

क्या भारत के बड़े अख़बार छोटे अख़बारों के हक में ऐसे संपादकीय लिख सकते हैं?

रवीश कुमार/ अमरीकी प्रेस के इतिहास में एक शानदार घटना हुई है। 146 पुराने अख़बार बोस्टन ग्लोब के नेतृत्व में 300 अखबारों ने एक ही दिन अपने अखबार में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर संपादकीय छापे हैं। आप बोस्टल ग्लोब की साइट पर जाकर प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर लिखे गए 300 संपादकीय का अध्ययन कर सकते हैं। सबके संपादकीय अलग हैं। पत्रकारिता के विद्यार्थी को सभी संपादकीय पढ़कर उस पर प्रोजेक्ट रिपोर्ट लिखना चाहिए। आप जानते हैं कि अमरीका के राष्ट्रपति ट्रम्प जब तक प्रेस पर हमला करते रहते हैं। प्रेस के ख़िलाफ़ अनाप-शनाप बोलते रहते हैं। अमरीकी प्रेस ने जम कर लोहा लिया है। मैं न्यूयार्क टाइम्स और बोस्टन ग्लोब के संपादकीय का अनुवाद कर रहा हूं ताकि हिन्दी के युवा पत्रकार और पाठक अमरीकी प्रेस के मानस में झांक कर देख सकें।

पहला न्यूयार्क टाइम्स का है-

1787 में जब संविधान का जन्म हुआ था, उस साल थॉमस जफरसन ने अपने मित्र को लिखा था कि अगर मुझ पर इसका फ़ैसला छोड़ा जाता कि सरकार हो मगर अख़बार न हो, अख़बार हो लेकिन सरकार न हो तो मैं एक झटके में दूसरे विकल्प को चुन लेता।

जैफ़रसन की राष्ट्रपति बनने से पहले ये सोच थी। बीस साल बाद व्हाइट हाउस के भीतर से प्रेस को देखने के बाद उनके मन में इसके महत्व को लेकर भरोसा कुछ कम हो गया था। “अख़बार में जो छपता है उस पर कुछ भी विश्वास नहीं किया जा सकता है, इस प्रदूषित वाहन में डालने भर से सत्य संदिग्ध हो जाता है ।” जैफ़रसन के विचार अब ये हो जाते हैं।

जैफ़रसन की असहजता समझी जा सकती है। एक खुले समाज में न्यूज़ की रिपोर्टिंग का उद्यम कई तरह के हितों के टकराव से जुड़ जाता है। उनकी असहजता से उन अधिकारों की ज़रूरत भी झलकती है जिसे उन्होंने संविधान में जोड़ा था। अपने अनुभवों से संविधान निर्माताओं को लगा था कि सही सूचनाओं से लैस जनता को भ्रष्टाचार मिटाने और आगे चलकर आज़ादी और न्याय को प्रोत्साहित करने में मदद मिलती है।

सार्वजनिक बहस राजनीतिक कर्तव्य है। 1964 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था। यह बहस बिना किसी झिझक के खुले मन से होनी चाहिए। कई बार सरकार और सरकारी अधिकारियों पर जमकर हमले होने चाहिए, भले ही वो किसी को अच्छा न लगे।

2018 में सरकारी अधिकारियों की तरफ से ही प्रेस को लेकर क्षति पहुंचाने वाले हमले हुए हैं। किसी स्टोरी को कम दिखाने या ज़्यादा दिखाने को लेकर
न्यूज़ मीडिया की आलोचना ठीक है। कुछ ग़लत छपा हो तो उसकी आलोचना ठीक है। न्यूज़ रिपोर्टर और संपादक भी इंसान हैं। उनसे ग़लतियां होती हैं। उन्हें ठीक करना हमारे पेशे का अहम हिस्सा है। लेकिन आपको जो सत्य पसंद नहीं है उसे फेक न्यूज़ कहना लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है। पत्रकारों को जनता का दुश्मन कहना भी ख़तरनाक है।

अमरीका में छोटे अखबार आर्थिक संकट से गुज़र रहे हैं। देश भर के पत्रकारों की रक्षा के लिए बने कानून भी कमज़ोर हैं। ऐसे में प्रेस पर होने वाले ये हमले उनके लिए चुनौती बन गए हैं। इन सबके बाद भी इन अख़बारों के पत्रकार सवाल पूछने के लिए मेहनत किए जा रहे हैं और आप तक उन स्टोरी को पहुंचा रहे हैं जिनके बारे में आपको पता भी नहीं चलता।
The San Luis Obispo Tribune ने जेल में बंद एक कैदी के बारे में रिपोर्ट छापी थी जिसे 46 घंटे तक रोक कर रखा गया था। इस रिपोर्ट ने देश को मजबूर कर दिया कि जेल में मानसिक रूप से बीमार कैदियों के इलाज में बदलाव लाया जाए।

पिछले हफ्ते The Boston Globe का प्रस्ताव आया था कि उनके इस अभियान में कस्बों के छोटे अख़बारों से लेकर महानगरों के बड़े अख़बार शामिल हो रहे हैं। The Times भी इसमें शामिल हो गया ताकि हम अपने पाठकों को अमरीका के आज़ाद प्रेस के महत्व को याद दिला सकें। ये सभी संपादकीय एकजुट होकर अमरीकी संस्थान के बुनियाद को रेखांकित कर रहे हैं।

अगर आपने इन संपादकीय को नहीं पढ़ा है तो प्लीज़ लोकल अखबारों को सब्सक्राइब करें, जब भी वे अच्छा काम करें, उनकी तारीफ करें और अगर लगे कि इससे भी अच्छा कर सकते हैं तो उनकी आलोचना करें। हम सब इसमें साथ हैं।

न्यू यॉर्क टाइम्स का संपादकीय यहां समाप्त होता है।

क्या भारत के बड़े अख़बार छोटे अख़बारों के हक में ऐसे संपादकीय लिख सकते हैं, क्या वे प्रेस की आज़ादी के अपने अभियान में छोटे अख़बारों को शामिल करते हैं? न्यूयार्क टाइम्स के इस संपादकीय से आपको झलक मिलती है कि हम लोकतांत्रिक मूल्यों को अभिव्यक्त करने में कितना पीछे हैं। इसलिए हिन्दी के पत्रकार जिनका जीवन हिन्दी के अखबारों में निश्चित ही नष्ट होने वाला है, उन्हें इसे पढ़ना चाहिए। कई बार स्वाध्याय ही नष्ट होने से बचा लेता है। अख़बार और पत्रकारिता नष्ट हो जाएगा मगर एक पढ़ा लिखा सचेत पत्रकार बचा रहेगा। वो बच जाएगा तो फिर कभी सब ठीक भी हो जाएगा।

अब आप अमरीका के दि बास्टल ग्लोब अखबार की साइट पर जाएं। वहां इस अभियान के बारे में लिखा है। इस अख़बार ने उन सभी अखबारों के संपादकीय बोर्ड से संपर्क साधा जो उदार मूल्यों और प्रेस की आज़ादी में यकीन रखते हैं।

“राष्ट्रपति ट्रंप की राजनीति के मुख्य केंद्र में आज़ाद प्रेस पर लगातार हमला करते रहना। पत्रकारों को अमरीकी नागरिक नहीं माना जाता है बल्कि उन्हें लोगों के दुश्मन की तरह पेश किया जा रहा है। आज़ाद प्रेस पर होने वाले निरंतर हमलों के ख़तरनाक परिणाम होंगे।इसलिए हमने देश भर के सभी छोटे और बड़े उदारवादी और रूढ़ीवादी अख़बारों के संपादकीय बोर्ड से संपर्क किया कि वे इन बुनियादी हमलों को लेकर अपने शब्दों में संपादकीय लिखें। ”

जब देश में कोई भी भ्रष्ट सत्ता काबिज़ होती है तब उसका काम होता है कि आज़ाद प्रेस की जगह सरकार संचालित मीडिया को ले आए। आज अमरीका में हमारे पास एक ऐसे राष्ट्रपति हैं जिन्होंने ऐसी सोच तैयार कर दी है कि मीडिया का जो हिस्सा मौजूदा प्रशासन की नीतियों को सपोर्ट नहीं करता है, वह जनता का दुश्मन है। राष्ट्रपति द्वारा फैलाए गए कई झूठ में से एक झूठ यह भी है।

” स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए प्रेस की स्वतंत्रता अनिवार्य है।” जॉन एडम का यह सूत्र वाक्य 200 सालों से ज़्यादा अमरीकी सिद्धांतों का हिस्सा रहा है जिसने पत्रकारों की देश में रक्षा की है। दुनिया के अन्य देशों में प्रेस के लिए मॉडल का काम करता रहा है। आज इस पर गंभीर ख़तरा है। बीजिंग से बगदाद और अंकारा से लेकर मॉस्को तक के तानाशाहों की तरफ से ये सिग्नल लगातार दिया जा रहा है कि पत्रकारों को जनता का दुश्मन घोषित किया जा सकता है।

स्वतंत्रत समाज के लिए प्रेस अनिवार्य है क्योंकि यह नेताओं पर आंख बंद कर भरोसा नहीं करता है। चाहे वो स्थानीय योजना बोर्ड के सदस्य हों या फिर व्हाईट हाउस के। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि मौजूदा राष्ट्रपति के वित्तीय मामलों में कई झोल हैं, जिनके संदिग्ध व्यावहारों के चलते उन्हीं के जस्टिस डिपार्टमेंट ने उनकी जांच के लिए एक स्वतंत्र वकील की नियुक्ति की है। अब ऐसे राष्ट्रपति ने उन पत्रकारों को धमकाने की बहुत कोशिश की है जो स्वंत्तर रूप से कई तथ्यों को सामने लाते हैं।

अमरीका में सबके बीच एक स्थापित और निष्पक्ष सहमति रही है कि प्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसके बाद भी अब ऐसे बहुत से अमरीकन हैं जो इस मत को नहीं मानते हैं। इस महीने Ipsos ने एक सर्वे किया था जिसमें 48 फीसदी रिपब्लिक समर्थकों ने माना है कि न्यूज़ मीडिया अमरीकी जनता का दुश्मन है। एक और सर्वे में 51 फीसदी रिपब्लिकन ने प्रेस की तुलना जनता के दुश्मन से की है। लोकतंत्र का अहम हिस्सा नहीं माना है।

ट्रंप के हमले से पता चलता है कि क्यों उनके समर्थक इस अलोकतांत्रिक रवैये का समर्थन करते हैं। एक चौथाई अमरीकी अब कहने लगे हैं कि राष्ट्रपति के पास ख़राब बर्ताव करने वाले प्रेस को बंद करने का अधिकार होना चाहिए। इस सर्वे में शामिल 13 फीसदी लोगों ने कहा है कि राष्ट्रपति को CNN, The Washington Post and The New York Times जैसे समाचार माध्यमों को बंद कर देना चाहिए।

अपने समर्थकों को उकसाने वाला यह मॉडल बता रहा है कि 21 वीं सदी के तानाशाह रूस के पुतीन और तुर्की के एर्दोगन कैसे काम करते हैं। आपको सूचनाओं को रोकने के लिए आधिकारिक रूप से सेंशरशिप के एलान की ज़रूरत ही नहीं है।

ट्रंप के समर्थक इस बात पर ज़ोर देते हैं कि उनका इशारा सिर्फ उस मीडिया की तरफ है जो तटस्थ नहीं हैं। वे सारे प्रेस के बारे में ऐसा नहीं कहते हैं। लेकिन राष्ट्रपति के अपने ही शब्द और उनका रिकार्ड बार बार यही बताता है कि समर्थकों के इस तर्क में कितनी बेईमानी है।

अमरीकी के संस्थापकों ने इस बात को महसूस किया था कि प्रेस तटस्थ नहीं भी हो सकता है फिर भी उन्होंने संविधान में प्रेस और पत्रकारों की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया था। थॉमस जेफ़रसन ने लिखा था कि हमारी स्वतंत्रता प्रेस की स्वतंत्रता पर निर्भर करती है और उसकी कोई सीमा नहीं तय की जा सकती है।

संविधान के संस्थापकों से लेकर सभी दलों के नेताओं को मीडिया से शिकायतें रही हैं। मीडिया पर आरोप लगाते रहे हैं लेकिन एक संस्थान के रूप में प्रेस का हमेशा सम्मान किया गया है। बहुत लंबे समय की बात नहीं है जब रिपब्लिकन राष्ट्रपति रोनल्ड रेगन ने कहा था कि मुक्त प्रेस की हमारी परंपरा हमारे लोकतंत्र का अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग रहा है और रहेगा।

1971 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ह्यूगो ब्लैक ने लिखा था कि प्रेस का काम शासित की सेवा करना है न कि शासक का। आज ट्रंप अपने साथ उसी मीडिया को लेकर ले जाते हैं जो उनके नेतृत्व की वकालत करता है। सवाल नहीं करता है।

देखा जाए तो सिर्फ राष्ट्रपति ही अपने राजनीतिक और निजी फायदे के लिए लोगों में विभाजन नहीं कर रहे हैं। वे अपने समर्थकों से भी कहते हैं कि वो जो कह रहे हैं उसी का अनुकरण करें। पिछले महीने कंसास में उन्होंने कहा था कि बस हमारी सुनो, ये लोग( प्रेस) जो बकवास दिखाते हैं उस पर यकीन मत करो। इतना याद रखना कि जो आप देख रहे हैं या पढ़ रहे हैं वही सिर्फ नहीं हो रहा है। जार्ज ओरवेल ने अपने उपन्यास 1984 में कहा था कि “जो पार्टी आपको यह कहे कि अपनी आंखों और कानों के देखे-सुने सबूतों को मत मानो, यह उनकी तरफ से सबसे अनिवार्य और अंतिम फरमान है। ”

George Orwell put it more gracefully in his novel “1984.” “The party told you to reject the evidence of your eyes and ears. It was their final, most essential command.”

आज ट्रंप अपने समर्थकों को यही करने के लिए कहते हैं। अपने कार्यकाल के पहले 558 दिनों में उन्होंने 4,229 ग़लत दावे किए हैं। वाशिंगटन पोस्ट ने उनके झूठे दावों की सूची बनाई है। फिर भी ट्रंप के समर्थकों में मात्र 17 फीसदी ऐसे हैं जो मानते हैं कि अमरीकी प्रशासन लगातार झूठ बोलता रहता है। उनका झूठ ही तथ्य बनता जा रहा है।

सूचनाओं से लैस नागरिकों के लिए झूठ उनके वजूद को नकारता है। अमरीका की महानता इस पर निर्भर है कि मुक्त प्रेस सत्ता के सामने खुलकर सत्य का बयान करे। प्रेस पर जनता का दुश्मन का लेबल चिपकाना अमरीकी पंरपरा नहीं है। दो सौ सालों जो जिस नागरिकता की साझा समझ हमने विकसित की है, उसके लिए यह फरमान ख़तरा है।

दि बोस्टन ग्लोब का संपादकीय यहां समाप्त होता है।

नोट- अच्छा होता कि कोई सभी तीन सौ संपादकीय का अनुवाद पेश करता है क्योंकि हर संपादकीय में अलग अनुभव और तथ्य हैं। इससे प्रेस की आज़ादी को लेकर हमारी समझ और विस्तृत होती है। हिन्दी के पाठकों और पत्रकारों के लिए मैंने अपनी छुट्टी के तीन चार घंटे लगाकर यहां अनुवाद किए हैं। यह इसलिए भी लिखा है ताकि आपको पता रहे कि इस तरह के काम में मेहनत लगती है। वक्त लगता है। सब कुछ फोकट में नहीं आता है। अगर आप चाहते हैं कि समाज बेहतर हो, तो अपने हिस्से का श्रमदान कीजिए। आने वाले दिनों में कुछ और संपादकीय का अनुवाद करूंगा।

(रवीश कुमार के ब्लॉग क़स्बा से साभार)

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना