किस भरोसे से लोग मदद के लिए सामने आएंगे
विनीत कुमार/ हालांकि है तो यह बेहद ही शर्मनाक बात कि बीच सड़क पर, दर्जनों लोगों के आते-जाते बीच गुरुग्राम में 23 साल का एक युवक महिला पर दनादन वार करता है, बेतहाशा चाकू चलाता जाता है और अंत में उसकी जान ले लेता है और कोई भी व्यक्ति उसे रोकने, महिला को बचाने नहीं आता. मां खड़ी होकर बिलखती रहती है और बेटी की जान चली जाती है.
जी न्यूज अपनी कवरेज में इस बात पर बार-बार जोर देता है, एंकर दोहराती है कि दरिंदगी जारी रही लेकिन कोई भी बचाने नहीं आया, यह कैसा समाज है ? उसने जोड़ा कि पिछले दिनों मई महीने में दिल्ली में भी इसी तरह की घटना हुई और लड़की को उसके दोस्त ने चाकू और फिर पत्थर से कुचलकर हत्या कर दी और तब भी कोई बचाने नहीं आया. हम जब ऐसी ख़बरें और उनकी फुटेज से गुज़रते हैं तो टीवी स्क्रीन के सामने ही उल्टी आने को होती है, सिर भारी हो जाने लगता है, हम कई तरह की आशंकाओं से घिर जाते हैं. लेकिन
चैनल जब बार-बार दोहराते हैं कि कोई भी बचाने नहीं आया, सब तमाशबीन बने रहे तो पलटकर पूछने का मन तो करता ही है कि आपने समाज को इस लायक रहने भी दिया ? सरेआम की जा रही हत्या को रोकने के प्रति तत्परता के बजाय गहरी उदासीनता छायी रहती है, आप कभी लोगों का मनोविज्ञान समझने की कोशिश कर पा रहे हैं ? आप जिस अंदाज़ में और ख़बर के नाम पर जिन मुद्दों को तूल देते हैं, उसके बाद दर्शक नागरिक की हैसियत से सोचने-समझने और व्यवहार करने की स्थिति में रह जाता है ? यहां तो आलम यह है कि कोई बचाने जाय तो आपके कैमरे का शिकार होकर ख़ुद ही पीड़ित न हो जाय. आख़िर अफ़वाह( सुधीर मिश्रा ) जैसी फ़िल्म हवा में तो बन नहीं रही.
चैनलों ने जिस तरह से देश के नागरिकों को भीड़ में बदलने का काम किया है, ये भीड़ या तो तमाशबीन बनकर चुपचाप सब देखती रहेगी या फिर हिंसा के साथ खड़ी हो जाएगी. इम दोनों ही स्थितियों में वो नागरिक के हिसाब से व्यवहार नहीं करेगी. लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर नागरिक की तरह सोचना और व्यवहार नहीं करना, क्या ये कम ख़तरनाक स्थिति है ?
हम जिस परिवेश से आते हैं, वो एकदम से इतना कठोर और अपने आसपास के लोगों से निस्संग नहीं रहा है. चैनलों ने लगातार जिस ढंग से दिमाग़ों का विभाजन किया है, उसका नतीजा है कि हर दिमाग़ में एक ही साथ दुश्मन और डर बैठा हुआ है. ये दुश्मन मॉब लिंचिंग के तौर पर सक्रिय होता है और ये डर सामने हत्या होती हुई भी देखकर “ अपने काम से काम और मतलब रखने” जैसा वाक्य दोहराकर आगे बढ़ जाने के तौर पर, नागरिक होने का विकल्प ही कहां बचता है ? सवाल किया जाना चाहिए कि एक संवदेनशील, मानवीय समाज बनाने में समाचार चैनलों की क्या भूमिका रह गयी है ?