क्या बिना चाटुकारिता, दलाली और चापलूसी के मुख्यधारा की पत्रकारिता संभव रह गयी है?
उपेन्द्र कश्यप/ जब मीडिया व्यवसायी है तो उसमें व्यवसाय संबंधी नकारात्मक पक्ष भी जुड़ेंगे ही। दर्द लोगों को इसलिए होता है कि उनके दिमाग में गांधी बाबा वाला मीडिया मिशन चित्रित है। यह जमाना अब वैसा नहीं रहा। पत्रकारिता शुद्ध व्यवसाय है, जब यह दिमाग में होगा तो भावनाएं कम आहत होंगी। साल 2000 से पहले की पत्रकारिता और उसके बाद की पत्रकारित में बड़ी विभाजक रेखा की वजह ही विज्ञापन है। आप किसी से भी यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह अपने संस्थान के लिए आउट ऑफ वे जाकर कमाई कराये और अपने लिए या समाज की नजर में ईमानदार बना रहे। यह मनुष्य के लिए कतई संभव नहीं है। पत्रकारिता में गिरावट की वजह इसका व्यवसायीकरण है। यहां सुबह शाम विज्ञापन के जरिये आर्थिक तरक्की की गाथाएं लिखने का रिवाज हो गया है। वह जमाना गया जब संपादक नाम की संस्था हुआ करती थी। अब संपादक मैनेजर हैं या मैनेजर के आगे कम सेलरी वाले विवश व्यक्ति। इसे समझिए, कम तकलीफ होगी।
और सबसे महत्वपूर्ण बात- आज भी सर्वाधिक ईमानदारी, जनपक्षीय जात समाज पत्रकारों की ही है। दूसरे के लिए, समाज के लिए निःस्वार्थ खतरा पत्रकार ही उठाता है, दूसरा कोई नहीं। बाकी सब यदि 90 फीसदी बेईमान हैं, या बेईमानी करते हैं तो पत्रकार चाहे जितना घटिया हो, सबसे अधिक ईमानदारी से जनपक्षीय काम करता है। वह 10 से 20 फीसदी ही बेईमानी कर सकता है।
उपेन्द्र कश्यप ने यह पोस्ट फेसबुक पर किसी पोस्ट पर प्रतिक्रियास्वरूप लिखा है। (साभार)