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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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मैं न्यूज़ एंकर नहीं रहा, न्यूज़ क्यूरेटर बन गया हूं

अब पाठक को भी पत्रकारिता करनी होगी 

रवीश कुमार/ अख़बार पढ़ लेने से अख़बार पढ़ना नहीं आ जाता है। मैं आपके विवेक पर सवाल नहीं कर रहा। ख़ुद का अनुभव ऐसा रहा है। कई साल तक अख़बार पढ़ने के बाद समझा कि विचारों से पहले सूचनाओं की विविधता ज़रूरी है। सूचनाओं की विविधता आपको ज़िम्मेदार बनाती हैं। आज के दौर में भले ही माध्यमों में विविधता आ गई है मगर सूचना में एकरूपता भी आई है। बहुत से चैनल हैं मगर सबके पास एक ही सूचना है। एक ही एजेंडा है। मीडिया का बिजनेस मॉडल ऐसा है जिसके कारण किसी भी सरकार के लिए सूचनाओं को नियंत्रित करना आसान हो गया है। मीडिया को सिर्फ सरकार ही नियंत्रित नहीं करती है मगर सरकार सबसे प्रमुख कारण है।

ऐसा नहीं है कि ख़बरें नहीं छप रही हैं, मगर उनके छपने का तरीका बदल गया है। असली ख़बरों की जगह नकली छप रही हैं और असली ऐसे छप रही हैं जैसे देखने में नकली लगें यानी कम महत्वपूर्ण लगे। इसलिए अब पाठक को भी पत्रकारिता करनी होगी। उसे भी ख़बरों को खोजना होगा। पहले ख़बर खोजने का काम पत्रकार करते थे अब उनका काम हुज़ूर के लिए नगाड़े बजाना रह गया है। यह हुज़ूर केंद्र में भी हैं और अलग अलग राज्यों में भी हैं। इसी सिस्टम को मैं गोदी मीडिया कहता हूं। जब तक पाठक ख़बरों को खोजने का काम नहीं करेंगे, उन्हें अख़बार पढ़ना नहीं आएगा।

क्लासिक परिभाषा के अनुसार एंकर का काम तब शुरू होता था जब कई रिपोर्टर अपनी रिपोर्ट के साथ तैयार हो जाते थे। अब चैनलों के न्यूज़ रूम से रिपोर्टर ग़ायब हैं। इतने कम हैं कि उनका दिन दो चार ख़बरों के पीछे भागने में ही समाप्त हो जाता है। हालत यह है कि ट्वीटर के ट्रेंड या नेताओं के मूर्खता भरे बयान न मिलें तो डिबेट एंकर के पास कोई काम नहीं रहता है। उसके पास सूचनाओं के संकलन का कोई संसाधन नहीं होता। बहुत कम लोगों के पास यह सुविधा हासिल है और उनकी सूचनाओं की विविधता में कोई दिलचस्पी नहीं है। उनका काम सरकार का बिगुल बजाकर हो जाता है।

यह प्रक्रिया दस पंद्रह साल पहले शुरू हो गई थी। कम लोगों को याद होगा कि आठ साल पहले आज तक और इंडिया टीवी जैसे चोटी के चैनलों पर 2012 तक दुनिया के अंत हो जाने की भविष्यवाणी पर आधे आधे घंटे के शो बना रहे थे जैसे आज हिन्दू मुस्लिम टॉपिक पर डिबेट के बनते हैं। यू ट्यूब पर आज तक चैनल का एक वीडियो देखा। शो का टाइटल है धरती के बस तीन साल। तारीख भी दी गई है। 21 दिसंबर 2012 को दुनिया समाप्त हो जाएगी। इंडिया टीवी का एक वीडियो मिला है जिसकी शुरूआत इस तरह से होती है- आप शायद सुनकर यकीन न करें, एक पल के लिए देखकर अनदेखा कर दें, लेकिन हो चुकी है भविष्यवाणी, तैयार हो गया है कैलेंडर, सिर्फ 4 साल 8 महीने 17 दिन बाद, हो जाएगा कलयुग का अंत, हम सब खत्म हो जाएंगे, तय हो गई है महाविनाश की तारीख। एक मिनट तक प्राकृतिक आपदाओं की पुरानी तस्वीरों के यह पंक्ति फ्लैश होती रही। उसके बाद आता है एंकर। इस एंकर ने अपने पहले के एंकरों को समाप्त कर दिया।

आठ साल पहले भी चैनलों पर यही सब चल रहा था। भूत प्रेत से लेकर तमाम ऐसे कार्यक्रम चल रहे थे जिनका ख़बरों से लेना देना नहीं था। वो आपको ऐसे दर्शक में बदल चुके थे जिसके भीतर ख़बर की भूख की जगह बकवास का भूसा भरा जा चुका था। गनीमत है कि दुनिया भी बची और हम सब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद पर देखने के लिए बचे रहे। मोदी युग की एक अच्छी बात यह है कि उसके कई लक्ष्य 2022 पर जाकर ख़त्म होते हैं। यानी तब तक तो कोई चैनल नहीं कह पाएगा कि दुनिया ही ख़त्म होने वाली है।

दुनिया तो ख़त्म नहीं हुई मगर चैनलों की दुनिया में ख़बरों की संस्थाएं ख़त्म हो गईं। ख़बरो को जुटाने वाले रिपोर्टर ख़त्म हो गए। दुनिया को ख़त्म करने वाले कार्यक्रम पेश करने वाले एंकरों की तरक्की हो चुकी है। न्यूज़ एंकर तभी ख़त्म हो गए थे। उनकी जगह लाए गए डिबेट एंकर। जो सबसे सवाल करें। सत्ता बदलते ही इन एंकरों के सवाल भी ख़त्म हो गए। यही नहीं अखबारों और अन्य जगहों पर भी इसी तरह का बदलाव हुआ। आज न्यूज़ चैनलों के न्यूज़ रूम में सूचनाओं का भयंकर अकाल है। मुद्दों का भी अकाल होता जा रहा है।

डिबेट एंकर भी अपनी मौत मर रहा है। वह सरकार का रोबोट बन कर रह गया है। आप रोबोट की तरह बिना किसी लोकलाज के प्रवचन करते जाइये, लोकतंत्र पर हमले करते जाइये। बहुत से लोग इन एंकरों की आलोचना लिखकर इस उम्मीद में हैं कि एक दिन कुछ बदलेगा। मगर रोबोट को कुछ फर्क नहीं पड़ता। वह वही बोलता है जो फीड होता है। अपने से अखबार उठाकर या न्यूज़लौंड्री क्लिक कर नहीं पढ़ता कि क्या आलोचना हो रही है।

इस प्रक्रिया से हिन्दी के दर्शकों पर बहुत ज़ुल्म हो रहा है। हिन्दी के छात्रों के साथ जो धोखा हो रहा है वह अभी नहीं, मगर बाद में समझेंगे। वे जीवन में पिछड़ने लगेंगे। कस्बों तक तो किताबों की सूचना पहुंच भी नहीं पाती है। चैनल खोलते हैं कि न्यूज़ मिलेगा मगर वहां न्यूज़ तो है ही नहीं। न्यूज़ रूम में ख़बरों को लाने के लिए संसाधन नहीं है। ऐसे में एंकर क्या करेगा। उसके पास दो ही विकल्प है। वह ख़ुद को रोबोट में बदल ले। दूसरा वह यह कर सकता है कि सूचनाओं का संकलन करे। मगर यह काम भी खुद करना होता है। दिन रात यहां वहां से सूचनाओं को जमा करता रहता हूं।

आप भी एक अख़बार के भरोसे न रहें। ख़बरों को पढ़ने का तरीका बदल लीजिए वरना आप और पीछे रह जाएंगे। कोई एक ख़बर ले लीजिए। जैसे हाल की भीमा-कोरेगांव की घटना। इस पर कम से कम बीस पचीस लेख छपे होंगे। इन सबको एक जगह जमा कीजिए और पढ़िए। फिर देखिए आपके ज़हन में इस घटना को लेकर क्या तस्वीर बनती है। देखिए कि कैसे जब भारत की सरकारी संस्था ने कहा कि जीडीपी की दर में गिरावट आने वाली है, उस खबर को मीडिया कोने में छापता है और जब विश्व बैंक कहता है कि जीडीपी बढ़ने वाली है तो कैसे उसे चमका कर पेश करता है।

हिन्दी या किसी भी भाषाई समाज के मित्रों, सूचना जुटना हर किसी के बस की बात नहीं है। यह विशुद्ध रूप से समय, संसाधन और विशेषाधिकार का मामला है। मुझ तक जो किताब यूं ही पहुंच जाएगी आप तक नहीं पहुंचेगी। मैं जानकारी और पैसे दोनों की बात कर रहा हूं। यह ज़रूर है कि मैं इसके लिए कुछ ऐसे लोगों को फोलो करता हूं या दोस्ती रखता हूं जिनसे मुझे ऐसी सूचना मिलती रहे। मिसाल के तौर पर आप में से बहुत न्यू-यार्कर सब्सक्राइब नहीं कर सकते। मैं भी नहीं करता हूं मगर मेरे कई मित्र करते हैं तो पता चलता रहता है कि उसमें क्या छप रहा है। पैसे के अलावा आपके परिवार और रोज़गार की ऐसी स्थिति नहीं होती कि चीज़ों को समझने का इतना वक्त मिल पाए। दो घंटे ट्रैफिक में लगाकर घर पहुंचेंगे तो ख़ाक जानने लायक रहेंगे। चैनलों को पता है कि आपके पास टाइम नहीं है इसलिए कूड़ा परोसते रहो।

पिछले कुछ साल से मैं ब्लाग और फेसबुक पर आर्थिक ख़बरों को क्यूरेट कर रहा हूं। यह काम प्राइम टाइम में ही करने लगा था। इस प्रक्रिया में मैं न्यूज़ एंकर से न्यूज़ क्यूरेटर बन गया। क्यूरेटर वह होता है जो किसी कलाकार के काम को ख़ास संदर्भ में सजाता है ताकि उसका मकसद साफ हो। आप जानते ही हैं कि टीवी में संसाधनों की कमी से अब बेहतर करना मुश्किल है। मेरा प्राण टीवी में बसता है और टीवी मर गया है। इसीलिए 2010 से ही चैनल देखना बंद कर दिया।

प्राइम टाइम के इंट्रो ने मुझे जाने अनजाने में न्यूज़ एंकर से न्यूज़ क्यूरेटर बना दिया। वैसे मैं भारत का पहला ज़ीरो टीआरपी एंकर भी हूं। प्राइम टाइम के इंट्रो के दौरान मैंने सूचनाओं के बारे में बहुत कुछ सीखा। अंतर्विरोधों को चूहे के बिल से खोज निकालना सीखा। और आप दर्शकों का बहुत सारा समय बचा दिया। वही काम मैं फेसबुक पर करता हूं। मैं अपने पेज @RavishKaPage पर आर्थिक ख़बरों का क्यूरेट करता हूं या वैसी ख़बरों का लाता हूं जिसे मुख्यधारा का मीडिया कोने में छिपा देता है। मैं कहां से जानकारी लेता हूं, किस अखबार से लेता हूं, उसका और उसके रिपोर्टर का नाम ज़रूर देता हूं ताकि आप भी खुद जांच कर सकें।

टीवी की मौत हो चुकी है। मेरा मन नहीं लगता। मैं रोज़ टीवी के दफ़्तर जाता हूं मगर एक दिन भी चैनल नहीं देखता। अब तो कई साल हो गए। ख़ुद पर हैरानी होता रहता हूं। टीवी के पास ज़्यादातर सतही किस्म की सूचनाएं हैं जिनमें परिश्रम कम है, प्रदर्शन ज़्यादा है। ऊपर से जब पता चलता है कि इतनी मेहनत के बाद केबल नेटवर्क से चैनल ग़ायब है और मेरा शो लोगों तक पहुंचा ही नहीं तो दिल टूट जाता है। घर आकर खाना नहीं खा पाता। दिन के दस दस घंटे लगाकर कुछ बनाइये और पहुंचा ही नहीं। आप मेरी पोस्ट औऱ शाम के इंट्रो से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मैं दिन भर में कितना समय काम में देता हूं।

यूनिवर्सिटी पर एक नहीं 27 दिनों तक सीरीज करता रहा। मगर लोगों तक पहुंचा ही नहीं। पिछले साल मई जून में दस दिनों तक स्कूलों की लूट पर शो करता चला गया। पांच दिनों तक फेक न्यूज़ पर करता चला गया। आप जाकर उन्हें यू ट्यूब में देखिए। काफी कुछ जानने को मिलेगा। 2012 या 2013 का साल रहा होगा, रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश का मसला उठा था, मैंने लगातार दस बारह दिनों तक कई शो कर दिए। अब तो विरोध करने वाली पार्टी सरकार में आकर FDI के अपने ही विरोध को कुचल रही है। कमाल है।

जब मैं कालेज में था तो भाषा के कारण अंग्रेज़ी की दुनिया में मौजूद सूचनाओं को कम समझता था। हिन्दी में सूचनाएं होती नहीं थीं। मेरे शिक्षक, सीनीयर, दोस्त और माशूका ने काफी मदद की। जिससे मुझे बहुत लाभ हुआ। मेरा समय बचा। वे मेरे लिए अनुवाद कर समझा देते थे। हिन्दी के लोग बहुत उम्मीद से अख़बार पढ़ते हैं। चैनल खोलते हैं। बहुतों को पता भी नहीं चलता कि उन्हें कुछ नहीं मिल रहा। उन्हें तो तब भी पता नहीं चला जब ख़बरों के नाम पर चैनल दुनिया के ख़त्म होने का दावा बेच गए।

इसलिए मैंने अपनी भूमिका बदल ली है। मेरे पास अपनी सूचनाओं की बहुत कमी है। आप दर्शक रोज़ तरह तरह की सूचना देते हैं मगर उन्हें सत्यापित करने और रिपोर्ट की शक्ल में पेश करने के संसाधन नहीं हैं। उल्टा आप मुझी को गरियाने लगते हैं। मैं आपके दुख को समझता हूं पर कुछ कर नहीं सकता। आप ये न सोचें कि मैं हताश वताश हूं। बिल्कुल नहीं। आप भरोसा करते हैं इसलिए बता रहा हूं कि मैं किस प्रक्रिया से गुज़र रहा हूँ। मेरे पास प्राइम टाइम करने के लिए सूचनाओं के बहुत कम विकल्प हैं। संसाधनों की गंभीर चुनौती ने सूचनाओं के संकलन पर बहुत असर डाला है। यह सच्चाई है।

मगर मैं अपने जुनून को कैसे रोकूं। इसलिए पढ़ता रहता हूं। जो पढ़ता हूं आपके लिए लिखता हूं। फ्री में करता हूं ताकि हिन्दी के छात्रों की दुनिया में पढ़ने का तरीका विकसित हो और वे अवसरों का लाभ उठाएं। मैं यह दावा नहीं कर रहा कि मेरा ही तरीका श्रेष्ठ है। इसलिए आजकल सुबह उठकर आर्थिक ख़बरों का संकलन करता हूं। उन ख़बरों को क्यूरेट करता हूं। एक संदर्भ में पेश करता हूं ताकि बाकी मीडिया के दावों से कुछ अलग दिखे। गर्दन दोनों तरफ मुड़नी चाहिए। सिर्फ सामने देखकर ही चलेंगे तो धड़ाम से गिरेंगे।

हाल ही में एक दोपहर टीवी आन कर दिया। एक एंकर को देखा कि पंद्रह मिनट तक यही बोलती रही कि बने रहिए हमारे साथ, ठीक चार बजे लालू यादव के ख़िलाफ फैसला आने वाला है। दो तीन सूचनाओं को लेकर वह बोलती रही। जनपथ मार्केट में बेचने वाला रोबोट बन चुका है। वह एक ही दाम बोलते रहता है। पच्चीस पच्चीस। कुछ देर बाद उस एंकर में मुझे रोबोट दिखाई देने लगा। जल्दी ही न्यूज़ रूम में यही सूचना कोई रोबोट बोल रहा होगा। ये बोल कर किसी को घर से नहा धो कर अच्छे कपड़े पहनकर आने की क्या ज़रूरत है। बहुत लोग ख़ुशी ख़ुशी रोबोट बन रहे हैं। ऐसे ही लोगों का न्यूज़ माध्यम में बोलबाला रहेगा। मुझे रोबोट नहीं बनना है। इसलिए फिर से एक नई कोशिश करता हूं। न्यूज़ क्यूरेटर बन जाता हूं। देखता हूं कि नियति कब तक मेरे साथ धूप-छांव का खेल खेलती है। सत्ता और पत्रकारिता का सिस्टम मुझे एक दिन हरा ही देगा मगर इतनी आसानी से उन्हें जीत नसीब नहीं होने दूंगा। 

इसलिए न्यूज़ एंकर की जगह न्यूज़ क्यूरेटर बन गया हूँ।

(रवीश कुमार के ब्लॉग क़स्बा से साभार)

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सम्पादक

डॉ. लीना