राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से'
कौशल किशोर / लखनऊ । कहने की जरूरत नहीं कि आज राजनीति किसानों के दुख दर्द और समस्याओं के प्रति कितनी संवेदनहीन हो गई है। विडम्बना तो यह है कि साहित्य, नाटक, सिनेमा व कला की अन्य विधाओं में भी किसान हाशिए पर चले गये हैं। प्रेमचंद द्वारा 76 साल पहले लिखित ‘गोदान’ का नायक होरी कर्ज और सूदखोरी पर आधारित महाजनी सभ्यता का शिकार हुआ था। देश आजाद हुआ, लेकिन होरी आजाद न हो सका। हजारों-लाखों की तादाद में आज भी कर्ज में डूबा होरी आत्महत्या करने को मजबूर है। ऐसे किसान विरोधी समय में राजेश कुमार का नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ निसन्देह बड़ी रचनात्मक पहल है।
‘उद्भावना’ ने राजेश कुमार के इस नाटक का प्रकाशन कर महत्वपूर्ण कार्य किया है। रंग संस्थाओं व कलाकारों तक इसको पहुंचाने के उद्देश्य से इसकी कीमत मात्र बीस रुपये रखी गई है। ‘सुखिया मर गया भूख से’ की कहानी लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले की है। एक गरीब किसान की भूख से हुई मृत्यु का सच दबाने के लिए नौकरशाही द्वारा जो कुचक्र रचा गया, यह उसी सत्य घटना पर आधारित है। सरकार द्वारा प्रचारित है कि उसके शासन में यदि कोई किसान भूख से मरता है तो इसके लिए उस जिले का प्रशासन खासतौर से डीएम जिम्मेदार माना जायेगा।
मुख्यमंत्री कार्यालय से जिले में सूचना आती है कि सुखिया नाम का किसान भूख से मर गया है। कार्यालय को चौबीस घंटे के भीतर इसकी रिपोर्ट चाहिए। फिर क्या? डी एम से लेकर तहसीलदार, एसपी से लेकर दरोगा, बीडीओ से लेकर डॉक्टर तथा ग्राम प्रधान तक सब मामला दबाने के कार्य में जुट जाते हैं। सुखिया ने खेती के लिए कर्ज क्या लिया, उसके जीवन में आफत आ गई। मूल से कई गुना सूद हो गया। अन्न पैदा करने वाला सुखीराम स्वयं भूखा प्यासा काम की तलाश में दरद र भटकता रहा। उसे काम मिला लेकिन कई दिनों से पेट में अन्न का एक दाना न जाने के कारण में वह बेहोश होकर वहीं दम तोड़ देता है। उसके अनाथ बच्चों व पत्नी के पास रोने और आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता। तब सारा तंत्र सुखिया की भूख से हुई मौत को गलत साबित करने में जुट जाता है। उसका घर अनाज से भर दिया जाता है। उसके नाम बीपीएल कार्ड जारी किया जाता है। झटपट नरेगा का जॉब कार्ड बनता है तथा बैंक में खाता खोल दिया जाता है।
सुखिया के मृत शरीर में मुंह के रास्ते अनाज भर दिया जाता है तथा हवा पम्प कर पेट इतना फुला दिया जाता है ताकि साबित हो जाए कि सुिखया की मौत भूख से नहीं, अधिक खाने से हुई है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी यही दिखाया जाता है। इस तरह भूख से हुई मौत की कहानी अधिक खाने से हुई मौत में बदल दी जाती है और वे सारे प्रमाण जुटा दिये जाते हैं जिससे साबित किया जा सके कि सुखिया एक सम्पन्न किसान था। उसकी मौत भूख से हो ही नहीं सकती थी। डीएम मीडिया के सामने घोषित करता है कि सुखीराम की मौत भूख से नहीं हुई है और उनके जिले में इस तरह की कोई घटना हुई ही नहीं। वह मुआवजे की घोषणा करता है। इस तरह पूरा तंत्र जिसमें मीडिया तक शामिल है, किसान की भूख से हुई मौत की सच्ची व दर्दनाक घटना को गलत साबित कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देता है।
यह ‘जनतांत्रिक’ व्यवस्था कितनी फर्जी, आम आदमी और उसकी समस्याओं से कटी, संवेदनहीन और अमानवीय हो गई है,नाटक इसके जनविरोधी चरित्र को उजागर करता है। नाटक में इसके विरुद्ध प्रतिरोध भी है। इस प्रतिरोध के लिए फैंटेसी रची गई है। प्रतिरोध का नायक सुखिया का प्रेत है जो तंत्र द्वारा गढ़े गये एक-एक झूठ का पर्दाफाश करता है। उस वक्त सुखिया का प्रतिरोध चरम रूप में अभिव्यक्त होता है। वह झूठ के तंत्र पर अपनी पूरी ताकत से टूट पड़ता है। नाटक कबीर की इस कविता के साथ समाप्त होता है ‘हम ना मरिबे मरिहें संसारा/हमको मिलिहाँ लड़ावनहारा./हम न मरिबे, अब न तरबे/करके सारे जतन भूख से लड़बै/जब दुनिया से भूख मिटावा/तब मरिके हम सुख पावा’। नाटक किसान के जीने की इच्छा शक्ति को सामने लाता है और संदेश देता है कि आत्महत्या विकल्प नहीं है बल्कि भूख पैदा करने वाली व्यवस्था को समाप्त करके ही किसान को सच्चा सुख मिल सकता है।